श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी85. शान्तिपुर में अद्वैताचार्य के घर
उस समय का दृश्य बड़ा ही करुणापूर्ण था। माता की ऐसी दशा देखकर सभी उपस्थित भक्त ढाह मार-मारकर रोने लगे। चन्द्रशेखर आचार्य का घर क्रन्दन की वेदनापूर्ण ध्वनि से गूँजने लगा। माता के मुख में से दूसरा कोई शब्द ही नहीं निकलता था, ‘हा निमाई! मेरे निमाई!’ बस, यही कहकर वह रुदन कर रही थी। बहुत देर इसी प्रकार रुदन करते रहने के अनन्तर भर्रायी हुई आवाज से माता ने रोते-रोते पूछा- ‘आचार्य! मेरे निमाई को कहाँ छोड़ आये? क्या वह सचमुच संन्यासी बन गया? आचार्य! तुम मुझे सच-सच बता दो, क्या उस मेरे दुलारे के वे कन्धों तक लटकने वाले काले-काले सुन्दर घुंघराले बाल सिर से पृथक् हो गये? क्या किसी निर्दयी नापित ने उन्हें छूरे की तीक्ष्ण धार से काट दिया? क्या मेरा सुकुमार निमाई भिखारी बन गया? क्या वह अब मांगकर खाने लगा? आचार्य! मुझ दु:खिनी अबला पर दया करके बता दो मेरा निमाई क्या अब न आवेगा? क्या अब मैं अपने हाथ से दात-भात बनाकर उस न खिला सकूँगी? क्या अब भूख लगने पर वह मुझसे बालाकों की भाँति भोजन के लिये आग्रह न करेगा? क्या अब वह मेरे कलेजे का टुकड़ा मुझसे अलग ही रहेगा? क्या अब उसे अपनी छाती से चिपटाकर अपने तन की तपन मिटा सकूंगी? क्या अब मैं उसके सुगन्धित बालों वाले मस्तक को सूंघकर सुखी न बन सकूँगी? आचार्य! तुम बताते क्यों नहीं? तुम्हें मुझ कंगालिनी पर दया क्यों नहीं आती? तुम मौन क्यों हो रहे हो? मेरे प्रश्नों को उत्तर क्यों नहीं देते?’ आचार्य माता के इतने प्रश्नों को भी सुनकर मौन ही बने बैठे रहे। केवल वे आँखों से अश्रु बहा रहे थे। आचार्य को इस प्रकार रोते देखकर माता समझ गयी’ कि मेरे निमाई ने जरूर संन्यास ले लिया। इसलिये वह अधीरता प्रकट करती हुई कहने लगी-‘आचार्य! तुम मेरे निमाई का पता मूझे बता तो। वह जहाँ भी कहीं होगा, वहाँ मैं जाऊँगी। वह चाहे कैसा भी संन्यासी क्यों न बन गया हो, है तो मेरा पुत्र ही! मैं उसके साथ-साथ रहूंगी, जिस प्रकार अपने बछड़े के पीछे-पीछे दुबली और वृद्धा गौ रंभाती हुई चलती है, उसी प्रकार मैं निमाई के पीछे-पीछे चलूंगी। |