श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी83. श्रीकृष्ण-चैतन्य
भारती जी ने प्रभु के सभी पुराने श्वेत वस्त्र उतारवा दिये थे और उन्हें अग्निवर्ण के काषाय-वस्त्र पहनने के लिये दिये। एक बर्हिवास (ओढ़ने का वस्त्र), दो कौपी नें एक भिक्षा मांगने को वस्त्र, एक कन्था और एक कटिवस्त्र- इतने कपड़े भारती जी ने प्रभु के लिये दिये। रक्त-वर्ण के उन चमकीले वस्त्रों को पहनकर प्रभु की उस समय ऐसी शोभा हुई मानो शरत्काल में सबके मन को हरने वाले, शीत से दु:खी हुए लोगों के दु:ख को दूर करते हुए अरुण रंग के बाल-सूर्य आकाश में उदित हुए हों। सुवर्ण-वर्ण के उनके शरीर पर काषाय-रंग के वस्त्र बड़े ही भले मालूम पड़ते थे। कंधे पर कन्था पड़ा हुआ था, छोटा वस्त्र सिर से बंधा हुआ था। एक हाथ में काठ का कमण्डलु शोभा दे रहा था, दूसरे हाथ से अपने संन्यास-दण्ड को लिये हुए थे और मुख से ‘श्रीकृष्ण-श्रीकृष्ण’ इस प्रकार कहते हुए अश्रु बहाते हुए खडे़ थे। प्रभु के इस त्रैलोक्य-पावन सुन्दर स्वरूप को देखकर सभी उपस्थित दर्शकवृन्द अवाक-से हो गये। उस समय सब-के-सब काठ की मूर्ति बने हुए बैठे थे। प्रभु के अद्भुत रूप-लावण्ययुक्त श्रीविग्रह को देखकर सबका मन अपने-आप ही प्रेमानन्द में विभोर होकर नृत्य कर रहा था। सभी की आँखों से प्रेम के अश्रु निकल रहे थे। प्रभु कुछ थोडे़ झुककर खडे़ हुए थे। भारती जी सामने ही एक उच्चासन पर स्थिर भाव से गम्भीरतापूर्वक बैठे हुए थे। उस समय यदि कोई जोरों से सांस भी लेता तो वह भी सुनायी पड़ता। मानो उस समय पक्षियों ने भी बोलना बंद कर दिया हो और पवन भी रुककर प्रभु की अद्भुत शोभा के वशीभूत होकर उनके रूप लावण्यरूपी रस का पान कर रहा हो। भारती जी को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे उस नीरवता को भंग करते हुए सब लोगों को सुनाकर कहने लगे- इन्होंने श्रीकृष्ण के सुमधुर नामों द्वारा लोगों में चैतन्यता का संचार किया है और आगे भी करेंगे, अत: आज से इनका नाम ‘श्रीकृष्ण-चैतन्य’ हुआ। भारती हमारी गुरुपरम्परा की संज्ञा है, अत: संन्यासियों में ये दण्डी स्वामी ‘श्रीकृष्ण-चैतन्य भारती’ कहे जायंगे। |