श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी83. श्रीकृष्ण-चैतन्य
प्रभु अपना मुख भारती जी के कान के समीप ले गये और धीरे-धीरे कहने लगे- ‘एक दिन मैंने स्वप्न में एक ब्राह्मण को देखा था। वह भी संन्यासी ही थे और उनका रुप-रंग आपसे बहुत कुछ मिलता-जुलता था। स्वप्न में ही उन्होंने मुझे संन्यासी बनने का आदेश दिया और स्वयं उन्होंने मेरे कान में संन्यास-मन्त्र दिया। वह मन्त्र मुझे अभी तक ज्यों-का-त्यों याद है, आप उसे पहले सुन लें कि वह गलत है या ठीक।’ यह कहकर प्रभु ने भारती जी के कान में वही स्वप्न में प्राप्त मन्त्र पढ़ दिया। मानों उन्होंने प्रकारान्तर से भारती जी को पहले स्वयं अपना शिष्य बना लिया हो। प्रभु के मुख से यथावत शुद्ध-शुद्ध संन्यास-मन्त्र को सुनकर भारती जी को कुछ आश्चर्य-सा प्रकट करते हुए प्रेम में गद्गद-कण्ठ से कहने लगे- ‘जब तुम्हें श्रीकृष्ण-प्रेम प्राप्त है, तब फिर तुम्हारे लिये अगम्य विषय ही कौन-सा रह जाता है?’ कृष्ण-प्रेम ही तो सार है, जप-तप, पूजा-पाठ, वानप्रस्थ, संन्यस्त आदि धर्म सभी उसी की प्राप्ति के लिये होते हैं। जिसे कृष्ण-प्रेम की प्राप्ति हो चुकी, उसके लिये मन्त्र ग्रहण करना, दीक्षा आदि लेना केवल लोकशिक्षणार्थ है। तुम तो मर्यादारक्षा के लिये संन्यास ले रहे हो इस बात को मैं खूब जानता हूँ। कृष्ण-कीर्तन तो तुम घर में भी रहकर कर सकते थे, किंतु यह दिखाने के लिये कि गृहस्थ में रहते हुए लौकिक तथा वैदिक कर्मों को, जिनका कि वेदशास्त्रों में गृहस्थी के लिये विधान बताया गया है, अवश्य ही करते रहना चाहिये। तुम्हारे द्वारा अब वे स्मृतियों में कहे हुए धर्म नहीं हो सकते। इसीलिये तुम संन्यास-धर्म का अनुसरण कर रहे हो। ‘जब तक ज्ञान में पूर्ण निष्ठा न हो, जब तक भगवत-गुणों में भलीभाँति रति न हो, तब तक स्मृतियों में ऋषियों के बताये हुए धर्मों का अवश्य ही पालन करते रहना चाहिये। इसलिये गृहस्थी में रहकर तुमने वैदिक कर्मों का यथावत पालन किया और अब कर्म-परित्याग के साथ ही पूर्व आश्रम का परित्याग कर रहे हो और संन्यास-धर्म के अनुसार सदा दण्ड धारण करके संन्यास-धर्म की कठोरता को प्रदर्शित करोगे, तुम्हारे वे सभी काम लोक-शिक्षार्थ ही है।’ इस प्रकार प्रभु की भाँति-भाँति से स्तुति करके भारती जी उन्हें मन्त्र-दीक्षा देने के लिये तैयार हुए। एक छोटे-से वस्त्र की आड़ करके भारती जी ने प्रभु के कान में संन्यास-मन्त्र कह दिया। बस, उस मन्त्र के सुनते ही प्रभु बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और ‘हा कृष्ण! हा कृष्ण!!’ इस प्रकार जोरों से चिल्ला-चिल्लाकर क्रन्दन करने लगे। पास ही में बैठे हुए नित्यानन्द जी ने उन्हें संभाला और होश में लाने की चेष्टा की। |