श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी79. परम सहृदय निमाई की निर्दयता
भक्तों के साथ महाप्रभु का ऐसा अपूर्व प्रेम देखकर कोई स्वप्न में भी इस बात का अनुमान नहीं कर सकता था कि ये एक दिन इन सबको त्यागकर भी चले जांयगे। वे भक्तों से हृदय खोलकर मिलते। भक्तों के प्राणों के साथ अपने प्राणों को मिला देते। उनके आलिंगन में, नृत्य में, नगर-भ्रमण में, ऐश्वर्य में, भक्तों के साथ भोजन में, सर्वत्र ओत-प्रोत भाव से प्रेम-ही-प्रेम भरा रहता। विष्णुप्रिया जी समझती थी, पतिदेव मुझसे ही अत्यधिक स्नेह करते हैं, वे मेरे प्रेमपाश में दृढ़ता से बंधे हुए हैं। माता समझती थीं, निमाई मुझे छोड़कर कहीं जा ही नहीं सकता। उसे मेरे बिना एक दिन भी तो कहीं रहना अच्छा नहीं लगता। दूसरे के हाथ से भोजन करने में उसका पेट ही नहीं भरता! जब तक मेरे हाथ से कुछ नहीं खा लेता तब तक उसकी तृप्ति ही नहीं होती। इस प्रकार सभी प्रभु को अपने प्रेम की रज्जु में दृढ़ता के साथ बँधा हुआ समझते थे। किंतु वे महापुरुष थे। उनके लिये यह सब लीला थी। उनका कौन प्रिय और कौन अप्रिय? वे तो चराचर विश्व में अपने प्यारे प्रेम का ही दर्शन करते थे। प्रेम ही उनका आराध्यदेव था। प्राणियों की शकल-सूरत से उनका अनुराग नहीं था, वे तो प्रेम के पुजारी थे! पुजारी क्या थे, प्रेम-स्वरूप ही थे। उन्होंने एकदम संन्यास लेने का निश्चय कर लिया। सभी को अपनी-अपनी भूल का अनुभव होने लगा। उस पर हमारे ही समान सभी प्राणियों का समानभाव से अधिकार है, सभी उसके द्वारा प्रेमपीपूष पाकर प्रसन्न हो सकते हैं। महाप्रभु के संन्यास लेने का समाचार सम्पूर्ण नवद्वीप नगर में फैल गया। बहुत-से लोग प्रभु के दर्शनों के लिये आने लगे। महाप्रभु अब भक्तों के सहित संकीर्तन में सम्मिलित नहीं होते थे। भक्तगण स्वयं ही मिलकर संकीर्तन करते और प्रात:-सायं प्रभु के दर्शनों के लिये उनके घर पर आया करते थे। |