श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी78. विष्णुप्रिया और गौरहरि
प्रभु ने कुछ अधीरता प्रकट करते हुए कहा- ‘प्रिये! मैं सदा से तुम्हारा हूँ और सदा तुम्हारा रहूँगा। तुम्हारा यह नि:स्वार्थ प्रेम कभी भुलाया जा सकता है? कौन ऐसा भाग्यहीन होगा जो तुम-जैसी सर्वगुण सम्पन्ना जीवन की सहचरी का परित्याग करने की मन में इच्छा भी करेगा, किंतु विष्णुप्रिये! मैं सत्य-सत्य कहता हूँ, मेरा मन अब मेरे वश में नहीं है। जीवों का दु:ख अब मुझसे देखा नहीं जा सकता। मैं संसारी होकर और घर में रहकर जीवों का उतना अधिक कल्याण नहीं कर सकता। जीवों के लिये मुझे शरीर से तुम्हारा त्याग करना ही होगा। मन से तो तुम्हारा प्रेम कभी भुलाया नहीं जा सकता। तुम निरंतर विष्णुचिंतन करती हुई अपने नाम को सार्थक बनाओ और अपने जीवन को सफल करो।’ बहुत ही अधीर स्वर में विष्णुप्रिया जी ने कहा- ‘मेरे देवता! यदि जीवों के कल्याण में मैं ही बाधकरूप हूँ तो मैं आपके श्री चरणों का स्पर्श करके कहती हूँ कि मैं सदा अपने पितृगृह में ही रहा करूंगी। जब कभी आप गंगास्नान को जाया करेंगे, तो कहीं से छिपकर दर्शन कर लिया करूँगी। माता को तो कम-से-कम आधार रहेगा। खैर, मैं तो अपने हृदय को वज्र बनाकर इस पहाड़-जैसे दु:ख को सहन भी कर लूँ, किंतु उन वृद्धा माता की क्या दशा होगी? उनके तो आगे-पीछे कोई नहीं है। उनका जीवन तो एकमात्र आपके ही ऊपर निर्भर है। वे आपके बिना जीवित न रह सकेंगी। निश्चय ही वे आत्मघात करके अपने प्राणों को गवाँ देंगी।’ प्रभु ने कुछ रूंधे हुए कण्ठ से रुक-रूककर कहा- ‘सबके आगे-पीछे वे ही श्रीहरि हैं। उनके सिवाय प्राणियों का दूसरा आश्रय हो ही नहीं सकता। प्राणिमात्र के आश्रय वे ही हैं। उनके स्मरण से सभी का कल्याण होगा। प्रिये! मैं विवश हूँ, मुझे नवद्वीप को परित्याग करके अन्यत्र जाना ही होगा। संन्यास के सिवाय मुझे दूसरे किसी काम में सुख नहीं। तुम सदा से मुझे सुखी बनाने की ही चेष्टा करती रही हो। तुमने मेरी प्रसन्नता के निमित्त अपने सभी सुखों का परित्याग किया है। जिस बात में मैं प्रसन्न रह सकूँ, तुम सदा ऐसा ही आचरण करती रही हो। |