श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी56. हरिदास की नाम-निष्ठा
गोराई क़ाज़ी ने जोर देते हुए कहा- ‘हुजूर! यह पहला ही मामला है। इसे ऐसा दण्ड देना चाहि ये कि सबके कान खड़े हो जायँ। आगे किसी को ऐसा काम करने की हिम्मत ही न पड़े। इस्लाम धर्म के अनुसार तो इसकी सजा प्राण दण्ड ही है। किंतु सीधे-सादे प्राणदण्ड देना ठीक नहीं। इसकी पीठ पर बेंत मारते हुए इसे बाईस बाजारों में होकर घुमाया जाय और बेंत मारते-मारते ही इसके प्राण लिये जायँ। तभी सब लोगों को आगे ऐसा करने की हिम्मत न होगी। मुलुकपति ने विवश होकर यही आज्ञा लिख दी। बेंत मारने वाले नौकरों ने महात्मा हरिदास जी को बाँध लिया और उनकी पीठ पर बेंत मारते हुए उन्हें बाजारों में घुमाने लगे। निरन्तर बेंतों के आघात से हरिदास के सुकुमार शरीर की खाल उधड़ गयी। पीठ में से रक्त की धारा बहने लगी। निर्दयी जल्लाद उन घावों पर ही और भी बेंत मारते जाते थे, किंतु हरिदास के मुख में से वही पूर्ववत हरिध्वनि ही हो रही थी। उन्हें बेंतों की वेदना प्रतीत ही नहीं होती थी। बाजार में देखने वाले उनके दुःख को न सह सकने के कारण आँखें बंद कर लेते थे, कोई-कोई रोने भी लगते थे, किंतु हरिदास जी के मुख से ‘उफ’ भी नहीं निकलती थी। वे आनन्द के साथ श्रीकृष्ण का कीर्तन करते हुए नौकरों के साथ चले जा रहे थे। उन्हें सभी बाजार में घुमाया गया। शरीर रक्त से लथपथ हो गया, किंतु हरिदास जी के प्राण नहीं निकले। नौकरों ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा- ‘महाशय! ऐसा कठोर आदमी तो हमने आज तक एक भी नहीं देखा। प्रायः दस-बीस ही बेंतों में मनुष्य मर जाते हैं, कोई-कोई तो दस-पाँच लगने से ही बेहोश हो जाते हैं। आपकी पीठ पर तो असंख्यों बेंत पड़े तो भी आपने ‘आह’ तक नहीं की। यदि आपके प्राण न निकले तो हमें दण्ड दिया जायगा। हमें मालूम पड़ता है, आप जिस नाम का उच्चारण कर रहे हैं, उसी का ऐसा प्रभाव है कि इतने भारी दुःख से आपको तनिक-सी भी वेदना प्रतीत नहीं होती। अब हम लोग क्या करें। दयालु-हृदय महात्मा हरिदास जी उस समय अपने दण्ड देने-दिलाने वालों तथा पीटने वालों के कल्याण के निमित्त प्रभु से प्रार्थना कर रहे थे। वे उन भूले-भटकों के अपराध को भगवान से क्षमा कर देने को कह रहे थे। इतने में ही सबको प्रतीत हुआ कि महात्मा हरिदास जी अचेतन होकर भूमि पर गिर पड़े। सेवकों ने उन्हें सचमुच में मुर्दा समझ लिया और उसी दशा में उन्हें मुलुकपति के यहाँ ले गये। |