श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी56. हरिदास की नाम-निष्ठा
इनकी ऐसी युक्तियुक्त बातें सुनकर मुलुकपति का हृदय भी पसीज उठा। इनकी सरल और मीठी वाणी में आकर्षण था। उसी से आकर्षित होकर मुलुकपति ने कहा- ‘तुम्हारी बातें तो मेरी भी समझ में कुछ-कुछ आती हैं, किंतु ये बातें तो हिन्दुओं के लिये ठीक हो सकती हैं। तुम तो मुसलमान हो, तुम्हें मुसलमानों की ही तरह विश्वास रखना चाहिये।’ हरिदास जी ने कहा- ‘महाशय! आपका यह कहना ठीक है, किंतु विश्वास तो अपने अधीन की बात नहीं है। जैसे पूर्व के संस्कार होंगे, वैसा ही विश्वास होगा। मेरा भगवन्नाम पर ही विश्वास है। कोई हिन्दू जब अपना विश्वास छोड़कर मुसलमान हो जाता है, तब आप उसे दण्ड क्यों नहीं देते? क्यों नहीं उसे हिन्दू ही बना रहने को मजबूर करते? जब हिन्दुओं को अपना धर्म छोड़कर मुसलमान होने में आप स्वतन्त्र मानते हैं तब यह स्वतन्त्रता मुसलमानों को भी मिलनी चाहिये। फिर आप मुझे कलमा पढ़ने को क्यों मजबूर करते हैं?’ इनकी इस बात से समझदार न्यायाधीश चुप हो गया। जब गोराई क़ाज़ी ने देखा कि यहाँ तो मामला ही बिलकुल उलटा हुआ जाता है तब उसने जोरों के साथ कहा- ‘हम ये सब बातें नहीं सुनना चाहते। इस्लाम-धर्म में लिखा है, जो इस्लामधर्म के अनुसार आचरण करता है उसे ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, उसके विरुद्ध करने वाले काफिरों को नहीं। तुम कुफ्र (अधर्म) करते हो। अधर्म करने वालों को दण्ड देना हमारा काम है। इसलिये तुम कलमा पढ़ना स्वीकार करते हो या दण्ड भोगना? दोनों में से एक को पसंद कर लो।’ बेचारा मुलुकपति भी मजबूर था। इस्लामधर्म के विरुद्ध वह भी कुछ नहीं कह सकता था। काजियों के विरुद्ध न्याय करने की उसकी हिम्मत नहीं थी। उसने भी गोराई क़ाज़ी की बात का समर्थन करते हुए कहा- ‘हाँ, ठीक है, बताओ तुम कलमा पढ़ने को राजी हो? हरिदास जी ने निर्भीक भाव से कहा- ‘महाशय! मुझे जो कहना था सो एक बार कह चुका। भारी-से-भारी दण्ड भी मुझे मेरे विश्वास से विचलित नहीं कर सकता। चाहे आप मेरी देह के टुकड़े-टुकड़े करके फेंकवा दें तो भी जब तक मेरे शरीर में प्राण हैं, तब तक मैं हरिनाम को नहीं छोड़ सकता। आप जैसा चाहें, वैसा दण्ड मुझे दें। हरिदास जी के ऐसे निर्भीक उत्तर को सुनकर मुलुकपति किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। वह कुछ सोच ही न सका कि हरिदास को क्या दण्ड दें? वह जिज्ञासा के भाव से गोराई क़ाज़ी के मुख की ओर देखने लगा। मुलुकपति के भाव को समझकर गोराई क़ाज़ी ने कहा- ‘हुजूर! जरूर दण्ड देना चाहिये। यदि इसे दण्ड न दिया गया तो सभी मनमानी करने लगेंगे, फिर तो इस्लामधर्म का अस्तित्व ही न रहेगा।’ |