श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी35. श्रीगयाधाम की यात्रा
ये बहुत ऊँचे साधक के भाव हैं, जो संसारी मान-प्रतिष्ठा तथा धन और विषयभोगों की इच्छा को सर्वथा त्याग कर एकमात्र भगवत-कृपा को ही अपने जीवन का चरम लक्ष्य समझकर सभी कार्यों को करते हैं, उन्हीं के लिये भगवान अपने श्रीमुख से फिर स्वयं उपदेश करते हैं- ‘जो पुरुष वासुदेव-बुद्धि रखकर कठोर बोलने वाले ब्राह्मणों की भी प्रसन्न अन्तःकरण से कमल के समान प्रफुल्लित मुख द्वारा अपनी अमृतमयी वाणी से प्रसन्नचित्त होकर स्तुति करते हैं और पिता के क्रुद्ध होने पर जिस प्रकार पुत्रादि क्रुद्ध न होकर उनका सत्कार ही करते हैं, उसी प्रकार उन्हें प्रेमपूर्वक बुलाते हैं, तो समझ लो ऐसे पुरुषों ने मुझे अपने वश में ही कर लिया है।’ क्रुद्ध होने वाले किसी भी प्राणी पर जो क्रोध नहीं करता वही सच्चा साधक और परमार्थी है। प्रभु के पाद-पद्मों की प्राप्ति ही जिसका एकमात्र लक्ष्य है, उसके हृदय में दूसरों के प्रति असम्मान के भाव आ ही नहीं सकते। इसलिये तुम लोग शीघ्र जाकर इस ग्राम के किसी ब्राह्मण का पादोदक लाकर मेरे मुख में डाल दो।’ इनकी आज्ञा पाकर दो-तीन विद्यार्थी गये और एक परम शुद्ध वैष्णव ब्राह्मण के चरणों को धोकर उसका चरणोदक ले आये। यह तो इनकी लोगों को ब्राह्मणों का महत्त्व प्रदर्शित करने की लीला थी। चरणोदक का पान करते ही ये झट से अच्छे हो गये और अपने सभी साथियों के साथ आगे बढ़ने लगे। पुनपुना-तीर्थ में पहुँचकर इन सब लोगों ने पुनपुन नाम की नदी में स्नान किया और सभी ने अपने-अपने पितरों का श्राद्धादि कराया। इसके अनन्तर सभी श्रीगयाधाम में पहुँच गये। ब्रह्मकुण्ड में स्नान और देव-पितृ-श्राद्धादि करके निमाई पण्डित अपने साथियों के सहित चक्रवेड़ा के भीतर विष्णु-पाद-पद्मों के दर्शनों के निमित्त गये। ब्राह्मणों ने पाद-पद्मों पर माला-पुष्प चढ़ाने को कहा। ये अपने विद्यार्थियों के द्वारा गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, माला आदि सभी पूजन की बहुत-सी सामग्री साथ लिवाते गये थे। |