श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी33. प्रकृति-परिवर्तन
चिकित्सकों ने वायुरोग स्थिर किया। समाचार पाकर बुद्धिमन्त खाँ और मुकुन्द संजय- ये सभी धनी-मानी सज्जन वैद्यों को साथ लेकर निमाई के घर दौड़े आये। सभी घबड़ा गये। ये लोग बड़े-बड़े धनिक थे। नाना प्रकार की मूल्यवान ओषधियाँ इनके यहाँ रहती थीं। वैद्यों की सम्मतिसे विष्णुतैल, नारायणतैल आदि सुगन्धित और मूल्यवान तैल इनके सिर में मले जाने लगे। इनके सिर को तैल में डुबाया गया और भी भाँति-भाँति के उपचार किये जाने लगे। इस प्रकार कई दिनों में धीरे-धीरे ये स्वस्थ हुए। यह देखकर इनके प्रेमियों को परम प्रसन्नता हुई। धीरे-धीरे ये फिर पूर्व की भाँति अपनी पाठशाला में जाकर अध्यापन का कार्य करने लगे। अब इनके स्वभाव में बहुत कुछ परिवर्तन हो गया। अब ये पहले की भाँति लोगों से छेड़खानी नहीं करते थे। इनमें बहुत कुछ गम्भीरता आ गयी। वैष्णवों की हँसी करना इन्होंने एकदम छोड़ दिया। इन्हें स्वस्थ देखकर लोग कहते- ‘भगवान की बड़ी कृपा हुई आप स्वस्थ हो गये। यह शरीर नश्वर और क्षणभंगुर है, अब कुछ कृष्णकीर्तन भी करना चाहिये। आयु को इसी तरह बिता देना ठीक नहीं।’ ये हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम करते और उनकी बात को स्वीकार करते। लोगों को- विशेषकर वैष्णवों को इनके इस स्वभाव- परिवर्तन से परम प्रसन्नता हुई। अब ये नियमितरूप से भगवान की पूजा और तुलसी पूजन आदि कार्यों को करने लगे। सन्ध्या-पूजा करके ये पढ़ाने के लिये जाते और सभी विद्यार्थियों के सदाचार के ऊपर अत्यधिक ध्यान रखते। जिस विद्यार्थी के मस्तक पर तिलक नहीं देखते उसे ही बुलाकर कहते- ‘आज तिलक क्यों नहीं धारण किया है?’ फिर सबको सुनाकर कहते- ‘जिसके मस्तक पर तिलक नहीं, समझ लो आज वह बिना ही सन्ध्या-वन्दन किये चला आया है।’ इस प्रकार जिसे भी तिलकहीन देखते उसे ही कहते- ‘पहले घर जाकर सन्ध्या-वन्दन करके तिलक धारण कर आओ, तब आकर पाठ पढ़ना।’ फिर आप समझाने लगते- ‘देखो भाई! सन्ध्या ही तो द्विजातियों का सर्वस्व है। |