श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी33. प्रकृति-परिवर्तन
विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च सन्ध्या ब्राह्मणरूपी वृक्ष की सन्ध्या ही जड़ है। वेद ही उस वृक्ष की बड़ी-बड़ी चार शाखाएँ हैं और धर्म- कर्मादि ही उस वृक्ष के सुन्दर-सुन्दर पत्ते हैं, इसलिये खूब सावधानी के साथ जल आदि देकर जड़की ही सेवा करनी चाहिये, क्योंकि जड़ के नष्ट हो जाने पर न तो शाखा ही रह सकती है और न पत्ते ही।’ आप कहते- ‘जो साठ घड़ी के दिन-रात्रि में से दो घड़ी सन्ध्या के लिये नहीं निकाल सकता वह आगे उन्नति ही क्या कर सकता है?’ इनके इस कथन का विद्यार्थियों के ऊपर बड़ा ही प्रभाव पड़ता और वे सभी यथासमय उठकर स्नानादि से निवृत्त होकर सन्ध्या-वन्दनादि करके तब पाठ पढ़ने आते। इन सभी बातों से विद्यार्थी इनके ऊपर बड़ा ही अनुराग रखने लगे और ये भी उन्हें प्राणों से भी अधिक प्यार करने लगे। ये भाव इनके हृदय में भक्ति-भागीरथी के स्त्रोत उमड़ने के पूर्व के सूत्रपातमात्र ही हैं। निमाई के हृदय में भक्ति के स्त्रोत का उदय तो श्रीगयाधाम में श्रीविष्णु भगवान के पादपद्मों के दर्शन से ही होगा। वहीं से भक्ति-भागीरथी का प्रवाह नवद्वीप आदि पुण्यस्थानों में होर अपनी द्रुतगति से समस्त प्राणियों को पावन करता हुआ श्रीनीलाचल के महासागर में एकरूप हो जायगा। यह बात नहीं कि नीलाचन में जाकर प्रेमपयोधि में मिलने पर उस त्रितापहारी प्रेमपीयूषपूर्ण पावन प्रवाह की परिसमाप्ति हो जायगी, किन्तु वह प्रवाह भगवती भागीरथी की भाँति अखण्डरूप से इस धराधाम पर सदा प्रवाहित ही होता रहेगा, जिसमें अवगाहन करके प्रेमी भक्त सदा सुख-शान्ति प्राप्त करते रहेंगे। इन सभी बातों का वर्णन पाठकों को अगले प्रकरणों में प्राप्त होगा। |