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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
47. गीता में बंध और मोक्ष का स्वरूप
जो अद्वैतमत को मानने वाले हैं, उनको जो आनंद प्राप्त होता है, वह अखंड (शांत) होता है। परंतु जो द्वैतमत को, प्रेम को मानने वाले हैं, उनको जो आनंद प्राप्त होता है, वह अनन्त (प्रतिक्षण वर्धमान) होता है। उस प्रेम के आनंद में ही योग में वियोग और वियोग में योग- यह प्रवाह चलता रहता है, जिसका कभी अंत नहीं आता।
उत्तर- सालोक्य, सर्ष्टि, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य (एकत्व)- ये पाँच प्रकार की मुक्तियाँ हैं। भगवद्धाम में जाकर निवास करना ‘सालोक्य’ है। भगवद्धाम में एक विशेष आनंद है। वहाँ सुख-दुख वाला सुख नहीं है, प्रत्युत सुख-दुख से अतीत आनंद है। सालोक्य से आगे की मुक्ति है- ‘सार्ष्टि’। इस मुक्ति में भक्त को भगवद्धाम में भगवान् के समान ऐश्वर्य प्राप्त हो जाता है अर्थात् जैसा भगवान् का ऐश्वर्य है, वैसा ही ऐश्वर्य भक्त को प्राप्त हो जाता है। संसार की उत्पत्ति करना, संहार करना आदि ऐश्वर्य को छोड़कर संपूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य- ये सभी भगवान् के समान भक्त को भी प्राप्त हो जाते हैं। सार्ष्टि से आगे की मुक्ति है- ‘सामीप्य’। इस मुक्ति में भक्त भगवद्धाम में रहते हुए भी भगवान् के समीप रहता है और भगवान् के समीप रहता है और भगवान् के माँ-बाप, सखा, पुत्र, स्त्री आदि संबंधी होकर रहता है। सामीप्य से भी आगे वाली मुक्ति है- ‘सारूप्य’। इस मुक्ति में भक्त का रूप भगवान् के समान हो जाता है। भगवान् के वक्षःस्थल में स्थित श्रीवत्स (लक्ष्मी का निवास), भृगुलता (भृगु जी का चरणचिह्न) और कौस्तुभमणि- इन तीन चिह्नों को छोड़कर शेष शंख, चक्र, गदा, पद्म आदि सभी चिह्न भक्त के भी हो जाते हैं। सारूप्य से भी आगे की मुक्ति है- ‘सायुज्य’ अर्थात् एकत्व। इस मुक्ति में भक्त भगवान् से अभिन्न हो जाता है अर्थात् वह अपना स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं मानता। उपर्युक्त पाँचों मुक्तियाँ सगुण-साकार को मानने वालों की होती हैं। इन पाँचों मुक्तियों में से ‘सायुज्य’ (एकत्व) मुक्ति को निर्गुण-निराकार को मानने वाले, अद्वैत-सिद्धांत में चलने वाले भी मान सकते हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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