विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
101. गीता का षड्लिंग
किसी ग्रंथ के प्रतिपाद्य विषय का निर्णय करने के लिए उपक्रम- उपसंहार, अभ्यास, अपूर्वता, फल, अर्थवाद और उपपत्ति- ये छः लिंग होते हैं अर्थात् ग्रंथ का उपक्रम और उपसंहार किसमें हुआ है, ग्रंथ में बार-बार कौन सी बात कही गयी है, ग्रंथ में कौन सी अलौकिकता है, फलस्वरूप में क्या बताया गया है, जिसकी प्रशंसा की गयी है और कौन सी युक्तियाँ दी गयी हैं- ये छः बातें होती हैं। इन छहों लिंगों से गीता के प्रतिपाद्य विषय का भी निर्णय हो जाता है। 1. उपक्रम – उपसंहार - गीता का उपक्रम और उपसंहार शरणागति में हुआ है। आरंभ में ‘शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’[1] ‘आपके शरण हुए मेरे को शिक्षा दीजिये’ कहकर अर्जुन भगवान् की शरण हो जाते हैं; और उपसंहार में ‘मामेकं शरणं व्रज’[2] ‘केवल मेरी शरण में आ जा’ कहकर भगवान् अपने शरण में आने की आज्ञा देते हैं। 2. अभ्यास- गीता में शरणागति की बात ही बार-बार कही गयी है; जैसे- ‘तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः’[3] ‘उन संपूर्ण इंद्रियों को वश मं करके मेरे परायण होकर बैठे’; ‘मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः’[4] ‘मन का संयम करके मेरे में चित्त लगाता हुआ मेरे परायण होकर बैठे’; ‘मय्यसक्तमना’[5] ‘मुझमें आसक्त मनवाला’; ‘अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः’[6] ‘अनन्य-चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरंतर स्मरण करता है’; ‘अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते’[7] ‘जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं’; ‘मन्मना भव मद्भक्तः’[8] ‘तू मेरा भक्त और मेरे में मनवाला हो जा’; ‘मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः’[9] ‘जो मेरे लिए ही कर्म करने वाला, मेरे ही परायण और मेरा ही भक्त है’; ‘मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय’[10] ‘तू मेरे में मन को लगा और मेरे में ही बुद्धि को लगा’; ‘मत्कर्मपरमो भव’[11] ‘मेरे लिए कर्म करने के परायण हो जा’; ‘मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते’[12] ‘जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मेरा सेवन करता है’ आदि-आदि। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (2।7)
- ↑ (18।66)
- ↑ (2।61)
- ↑ (6।14)
- ↑ (7।1)
- ↑ (8।14)
- ↑ (9।22)
- ↑ (9।34)
- ↑ (11।55)
- ↑ (12।8)
- ↑ (12।10)
- ↑ (14।26)
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