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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
32. गीता में द्विविधा इच्छा
गीता में सत् और असत्- इन दो का वर्णन आया है। ऐसे ही इच्छा भी दो प्रकार की होती है। एक इच्छा तो 'स्त्' को प्राप्ति की होती है और एक इच्छा 'असत्'- (सांसारिक भोगों) की प्राप्ति की होती है। स्त् की इच्छा भाव रूप है अर्थात सदा रहने वाली है, कभी मिटने वाली नहीं है एवं पूर्ण होने वाली है और असत् की इच्छा अभाव रूप है अर्थात मिटने वाली है, कभी पूर्ण होने वाली नहीं है।[1] अत: सत् की इच्छा की पूर्ति होती है असत् की इच्छा की निवृत्ति होती है, अभाव होता है। वास्तव में देखा जाय तो यह जीव साक्षात् परमात्मा- (सत्) का अंश है और इसने प्रकृति के अंश-(असत्) को पकड़ा है, उसके साथ तादात्म्य किया है।[2] इसी कारण इसमें दो इच्छाएँ उत्पन्न हो गयी हैं। यदि यह प्रकृति के अंश को न पकड़े तो असत् की इच्छा की निवृत्ति हो जायगी और सत् की इच्छा की पूर्ति हो जायगी। कारण कि परमात्मा का अंश होने से परमात्म प्राति तो स्वत:सिद्ध है ही, केवल अरात् को पकड़ने से अपूर्ति का, अभाव का अनुभव हो रहा था। कर्मयोग के प्रकरण में इन्हीं दो इच्छाओं को व्यत्रसायात्मिका और अव्यवसायात्मिका बुद्धि के नाम से कहा गया है।[3] परमात्मप्राप्ति की इच्छा को 'व्यवसायात्मिका बुद्धि' और भोगों की इच्छा को 'अव्यवसायात्मिका बुद्धि' कहा गया है। व्यवसायात्मिका बुद्धि एक होती है क्योंकि परमात्मतत्त्व एक है। मार्ग भेद से, पद्धति भेद से, रुचि और श्रद्धा-विश्वास के भेद से इस परमात्मतत्त्व की इच्छा को मुमुक्षा, प्रेमपिपासा, भगवद्दिदृक्षा आदि नामों से कह देते हैं। परंतु अव्यवसायात्मिका बुद्धि अनेक होती है क्योंकि सांसारिक भोग और संग्रह की इच्छाओं का कभी अंत नहीं आता अत: उनकी कभी पूर्ति हो ही नहीं सकती, उनका तो त्याग ही हो सकता है। इसलिये भगवान् ने गीता में असत् की इच्छाएं त्याग पर बहुत जोर दिया है।[4] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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