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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
103. गीता में अलंकार
अलंकार नाम सुंदरता देने वाले का है। यह सुंदरता दो तरह से होती है- शब्द से और अर्थ से। जिस श्लोक या वाक्य में शब्दों को अर्थात् अक्षरों को लेकर सुंदरता होती है, वह ‘शब्दालंकार’ कहलाता है; जैसे- ‘तत्रापश्यस्थितान्मार्थः पितृनथ पितामहान्’[1] - इस वाक्य में ‘प’ व्यंजन को लेकर सुंदरता है। जिस श्लोक या वाक्य में अर्थ को लेकर सुंदरता होती है, वह ‘अर्थालंकार’ कहलाता है; जैसे- ‘वायुर्नावमिवाम्भसि’[2] ‘शब्दालंकार’ के अनुप्रास, यमक आदि और ‘अर्थालंकार’ के उपमा रूपक आदि कई भेद होते हैं। गीता में कुछ अलंकार आये हैं; जैसे- 1. अनुप्रास- जहाँ ‘अ, आ......’ आदि स्वरों की भिन्नता होने पर भी ‘क, ख...... आदि’ व्यंजनों की समानता हो, वहाँ, ‘अनुप्रास अलंकार’ होता है। पाँचवें अध्याय के आठवें – नवें श्लोकों में ‘पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृषञ्जिघ्रन्.......’ आदि पदों में ‘न’ व्यंजन की समानता है। ऐसे ही पाँचवें अध्याय के सत्रहवें श्लोक में ‘तद्बुद्धयस्तदात्मानः.....’ आदि पदों में ‘त’ व्यंजन की समानता है। 2. यमक- जहाँ एक ही शब्द कई बार आता है, पर उसका अर्थ भिन्न-भिन्न होता है, वहाँ ‘यमक अलंकार होता है। आठवें अध्याय के बीसवें श्लोक में’ ‘भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः’ पद में ‘अव्यक्त’ शब्द दो बार आया है। यहाँ पहला ‘अव्यक्त’ शब्द परमात्मा का और दूसरा ‘अव्यक्त’ शब्द ब्रह्मा का वाचक है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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