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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
57. गीता में कर्तृत्व-भोक्तृत्व का निषेध
एक परमात्मा हैं और एक परमात्मा की शक्ति प्रकृति है। उस प्रकृति में ही मात्र परिवर्तन होता है, और उस प्रकृति का जो आधार, प्रकाशक, आश्रय है, उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता। जिस प्रकृति में परिवर्तन होता है, उसी को गीता ने कई तरह से बताया है जैसे- संपूर्ण क्रियाएँ प्रकृति के द्वारा ही होती हैं[1] गुण ही गुणों में बरत रहे हैं अर्थात संपूर्ण क्रियाएँ प्रकृति के गुणों के द्वारा ही होती हैं[2] इंद्रियाँ ही इंद्रियों के विषयों में बरत रही हैं अर्थात् संपूर्ण क्रियाएँ इंद्रियों के द्वारा ही होती हैं|[3] इंद्रियों के द्वारा क्रियाएँ होने की बात को भी गीता ने कई तरह से बताया है- कहीं शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि के द्वारा क्रियाओं का होना बताया है,[4] कहीं शरीर, कर्ता, करण, चेष्टा और दैव (संस्कार) को क्रियाओं के होने में हेतु बताया है,[5] कहीं शरीर, वाणी और मन को क्रियाओं को प्रकट होने के द्वारा बताया है[6] और कहीं क्रियाओं के होने में स्वभाव को हेतु बताया है|[7] वास्तव में प्रकृति, गुण और इंद्रियाँ- ये तीनों तत्त्व से एक ही हैं क्योंकि प्रकृति मूल है, प्रकृति का कार्य गुण है और गुणों का कार्य इंद्रियाँ हैं। इससे यही सिद्ध हुआ कि कर्तृत्व अर्थात् मात्र करना प्रकृति में ही है, परमात्मा के अंश जीवात्मा (पुरुष) में नहीं है क्योंकि कार्य और करण के द्वारा होने वाली क्रियाओं को उत्पन्न करने में प्रकृति को हेतु बताया गया है- ‘कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते’[8] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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