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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
26. गीता में मनुष्यों की श्रेणियाँ
श्रीमद्भगवद्गीता का अध्ययन, मनन करने से यह बात देखने में आती है कि मनुष्यों की जैसी स्थिति है, भाव है, मान्यताएँ हैं, आचरण हैं, उनके अनुसार ही मनुष्यों की अलग-अलग श्रेणियाँ हो जाती हैं अर्थात् मनुष्यजाति के (एक होते हुए भी) स्थिति, भाव, साधन-पद्धति आदि के अनुसार अनेक भेद हो जाते हैं जैसे- भगवान् ने पूर्वजन्म के गुणों और कर्मों के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चारों वर्णों की रचना करके इन चारों वर्णों के अंतर्गत ही सभी मनुष्यों को माना है [1] तथा स्वभाव से उत्पन्न हुए गुणों के अनुसार चारों वर्णों के मनुष्यों के नियत कर्मों का विधान किया है।[2] उन मनुष्यों में से जो अपने कल्याण के लिए भगवान् का आश्रय लेते हैं, उनके आचरणों के अनुसार भगवान् ने अपनी भक्ति के सात अधिकारी बताये हैं- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र स्त्रियाँ, पापयोनि और दुराचारी।[3] ये सातों अधिकारी किन-किन भावों से भगवान् का भजन करते हैं, उन भावों के चार भेद करके भगवान् ने भक्तों की चार श्रेणियाँ बतायी हैं- अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात् प्रेमी।[4] धन-संपत्ति, पद-अधिकार, जमीन-जायदाद आदि सांसारिक वैभव के लिए जो भगवान् का भजन करते हैं, वे ‘अर्थार्थी’ भक्त हैं। सांसारिक दुःख दूर करने के लिए जो भगवान् को आर्तभाव से पुकारते हैं, वे ‘आर्त’ भक्त हैं। भगवान् से ही अपने स्वरूप को, परमात्मतत्त्व को जानने के लिए जो भगवान् का भजन करते हैं, वे ‘जिज्ञासु’ भक्त हैं। जो केवल भगवान् में प्रेम करना चाहते हैं भगवान् को सुख देना चाहते हैं, भगवान् की सेवा करना चाहते हैं, वे ‘ज्ञानी’ (प्रेमी) भक्त हैं। इन चारों प्रकार के भक्तों को भगवान् ने उदार कहा है क्योंकि ये जो कुछ भी चाहते हैं, वह भगवान् से ही चाहते हैं, संसार से नहीं। ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त को तो भगवान् ने अपनी आत्मा (स्वरूप) ही बताया है क्योंकि उसकी भगवान् से कोई माँग नहीं है।[5] ऐसे प्रेमी भक्त को भगवान् ने दुर्लभ बताया है- ‘स महात्मा सुदुर्लभः’[6] और सर्वश्रेष्ठ बताया है- ‘स मे युक्ततमो मतः’ [7] ऐसा सिद्ध भक्त राग-द्वेष, हर्ष शोक आदि विकारों से रहित, अहंता-ममता से रहित और शत्रु-मित्र, मान-अपमान, सुख- दुःख आदि में सम रहने वाला होता है।[8] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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