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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
7. गीता में भगवन्नाम
नाम और नामी में अर्थात् भगवन्नाम और भगवान् में अभेद है; अतः दोनों के स्मरण का एक ही माहात्म्य है। भगवन्नाम तीन तरह से लिया जाता है-
गीता में भगवान् ने ॐ, तत् और सत्- ये तीन परमात्मा के नाम बताये हैं[4] प्रणव- (ओंकार-) को भगवान् ने अपना स्वरूप बताया है[5][6] भगवान् कहते हैं कि जो मनुष्य ‘ॐ’- इस एक अक्षर प्रणव का उच्चारण करके और मेरा स्मरण करके शरीर छोड़कर जाता है, वह परमगति को प्राप्त होता है।[7] अर्जुन ने भी भगवान् के विराट रूप की स्तुति करते हुए नाम की महिमा कही है; जैसे- ‘हे प्रभो! कई देवता भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आपके नाम आदि का कीर्तन कर रहे हैं’[8] ‘हे अंतर्यामी भगवन्! आपके नाम आदि का कीर्तन करने से यह संपूर्ण जगत् हर्षित हो रहा है और अनुराग- (प्रेम-) को प्राप्त हो रहा है। आपके नाम आदि की कीर्तन से भयभीत होकर राक्षसलोग दसों दिशाओं में भागते हुए जा रहे हैं और संपूर्ण सिद्धगण आपको नमस्कार कर रहे हैं। यह सब होना उचित ही है’।[9] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (8।14)
- ↑ (10।15)
- ↑ (9।14)
- ↑ -‘ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः’ (17।23)
- ↑ -‘प्रणवः सर्ववेदेषु’ (7।8)
- ↑ ‘गिरामस्म्येकमक्षरम्’ (10।25)
- ↑ (8।13)
- ↑ (11।21)
- ↑ (11।36)
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