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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
29. गीता में प्राणिमात्र के प्रति हित का भाव
जीव अनादिकाल से अपने व्यक्तिगत सुख और हित तत्पर रहता आया है। अतः ‘मेरे को सुख मिले, मेरा आदर हो, मेरी मान बड़ाई हो, मेरे नाम की महिमा हो, मेरी मनचाही हो, मेरा हित हो, मेरा कल्याण हो, मेरी मुक्ति हो’- इस तरह उसका संसार को अपनी तरफ ही खींचने का स्वभाव पड़ा हुआ है। इस स्वभाव के कारण उसमें कामना, ममता, आसक्ति आदि की वृद्धि एवं दृढ़ता होती है, जबकि कल्याण कामना, ममता आदि से रहित होने से होता है।[1] अतः संसार को अपनी तरफ खींचने के स्वभाव को मिटाने के लिए मनुष्य की संपूर्ण प्राणियों के हित में रति, प्रीति होने बहुत आवश्यक है अर्थात् ‘प्राणिमात्र को सुख मिले, कोई दुखी न रहे, सबका आदर सत्कार हो, सबकी मान-बड़ाई हो, सबका कल्याण हो, सबको परमात्मा की प्राप्ति हो’- ऐसा भाव होना बहुत आवश्यक है। ऐसा सर्वहितकारी भाव होने से संसार को अपनी तरफ खींचने का भाव मिट जाता है और अपने पास धन-संपत्ति, वैभव, स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर में आदि जो सामग्री है, जो कि संसार से ही मिली हुई और संसार से अभिन्न है, उसको प्राणि मात्र के हित में लगाने का भाव जाग्रत हो जाता है। फिर प्राणियों की सेवा करने में, उनका आदर-सत्कार करने में, उनको सुख आराम पहुँचाने में, उनका हित करने में उस सामग्री का स्वतः सद्व्यय होने लग जाता है, जिससे नाशवान् की कामना, ममता, आसक्ति आदि छूटती जाती है तथा अपनी परिच्छन्नता का भाव मिटता जाता है। सर्वथा परिच्छिन्नता मिटते ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है- ‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः’[2] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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