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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
92. गीता में आये ‘तत्त्वतः’ पद का तात्पर्य
चौथे अध्याय के नवें श्लोक में ‘तत्त्वतः’ पद भगवान् के अवतार को तत्त्व से जानने अर्थात् दृढ़तापूर्वक मानने के अर्थ में आया है। इस पद की व्याख्या चौथे अध्याय के ही छठे श्लोक में की गयी है कि भगवान् अजन्मा रहते हुए ही जन्म लेते हैं अर्थात् भगवान् का अजपना निरंतर रहता है, मिटता नहीं। वे अव्यय (अविनाशी) स्वरूप रहतेहुए अंतर्धान हो जाते हैं अर्थात् उनका अव्ययपना निरंतर रहता है। वे प्राणिमात्र के महान् ईश्वर (मालिक) होते हुए भी माता-पिता की आज्ञा का पालन करते हैं, उनके अधीन हो जाते हैं, ऐसा होने पर भी उनका ईश्वरपना (आधिपत्य) मिटता नहीं। वे प्रकृति को अपने वश में करके अपनी योगमाया से प्रकट होते हैं। उनका जन्म लेना जीवों की तरह कर्मों के अधीन नहीं होता। छठे अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में ‘तत्त्वतः’ पद अपने स्वरूप को ठीक-ठीक जानने के अर्थ में आया है। जिसको अपने स्वरूप का ठीक-ठीक बोध हो जाता है, वह फिर कभी भी अपनी स्थिति से विचलित नहीं होता अर्थात् अनुकूल से अनुकूल और प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थिति आने पर भी वह अपनी स्थिति से विचलित नहीं होता|[1] कारण कि उसकी प्रकृति की, गुणों की परतंतत्रता मिट जाती है अर्थात् वह कभी किञ्चिन्मात्र भी प्रकृति के गुणों के परवश नहीं होता। सातवें अध्याय के तीसरे श्लोक में ‘तत्त्वतः’ पद भगवत्तत्त्व का ठीक-ठीक अनुभव करने के अर्थ में आया है कि सब कुछ भगवान् ही हैं। भगवान् के सिवाय दूसरे किसी की भी स्वतंत्र सत्ता नहीं है। इस तरह जो तत्त्व से भगवान् को जानता है, उसके लिए कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (6।22)
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