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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
76. गीता में भगवान और महापुरुष का साधर्म्य
गीता में भगवान और सिद्ध महापुरुषों के लक्षणों में साधर्म्य (सधर्मता) का वर्णन हुआ है; जैसे- 1. भगवान कहते है कि त्रिलोकी में मेरे लिये कुछ भी कर्तव्य नहीं है- 'न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किश्चन'[1] ऐसे ही महापुरुष के लिये भी कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता--'तस्य कार्य न विद्यते'[2] 2. भगवान कहते हैं कि मेरे लिये प्राप्त होने योग्य कोई भी वस्तु अप्राप्त नहीं है- 'नानवाप्तमवाप्तव्यम्'[3] इसी प्रकार महापुरुष का भी किसी प्राणी के साथ किंचितमात्र भी स्वार्थ का सम्बंध नहीं रहा अर्थात किसी भी प्राणी से कुच भी पाना शेष नहीं रहता- 'न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय:'[4]
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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