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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
60. गीता में परमात्मा और जीवात्मा का स्वरूप
स्व नाम स्वयं का है, ‘पर’ नाम दूसरे का है और ‘तंत्र’ नाम अधीन का है। अतः जो स्वयं के अधीन होता है, उसको ‘स्वतंत्र’ (स्वाधीन) कहते हैं और जो दूसरे के अधीन होता है, उसको ‘परतंत्र’ (पराधीन) कहते हैं। स्वतंत्र और परतंत्र के भाव का नाम ही स्वतंत्रता और परतंत्रता है। यद्यपि ईश्वर में कर्तृत्व नहीं है और ईश्वर के अंश इस जीवात्मा में भी तत्त्वतः कर्तृत्व नहीं है, तथापि ईश्वर में प्रकृति को लेकर कर्तृत्व है और जीवात्मा में शरीर-इंद्रियाँ मन बुद्धि आदि को लेकर कर्तृत्व है। परंतु इन दोनों को कर्तृत्व में बड़ा भारी अंतर है। ईश्वर तो प्रकृति के अधिपति होते हुए ही प्रकृति को अपने वश में करके स्वतंत्रता से संसार की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय आदि कार्य करते हैं[1] और यह जीवात्मा सुखासक्ति के कारण शरीर आदि के वशीभूत होकर परतंत्रता से कार्य करता है।[2] जैसे भगवान् प्रकृति को स्वीकार करने और न करने में स्वतंत्र हैं और स्वीकार करने पर भी भगवान् परतंत्र नहीं होते, ऐसे ही यह जीवात्मा भी शरीर आदि को ‘मैं-मेरा’ मानने और न मानने में स्वतंत्र है, पर उनको ‘मैं-मेरा’ मानने पर जीवात्मा अपनी स्वतंत्रता को भूलकर उनके अधीन (परतंत्र) हो जाता है। अतः परिणाम में यह जन्म मरण के चक्कर में पड़ जाता है। जीवात्मा की यह परतंत्रता स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत खुद की बनायी हुई, खुद की मानी हुई है। तात्पर्य यह है कि जब यह जीवात्मा स्वयं राग के कारण प्रकृति के कार्य शरीरादि की अधीनता स्वीकार कर लेता है, तब यह परतंत्र हो जाता है और जब यह प्रकृति के कार्य की अधीनता को अस्वीकार कर देता है, तब यह स्वतंत्र हो जाता है अर्थात् अपनी स्वतः सिद्ध स्वतंत्रता का, अपने स्वरूप का अनुभव कर लेता है। ऐसा अनुभव करने में वह स्वतंत्र है। जब यह जीवात्मा अपनी स्वतः सिद्ध स्वतंत्रता का अनुभव करके भी संतुष्ट नहीं होता, तब उसका भगवान् के चरणों में प्रेम हो जाता है। प्रेम होने पर भगवान् उसके वश में हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि जब यह प्रकृति के कार्य को छोड़कर भगवान् को स्वीकार कर लेता है, तब सर्वस्वतंत्र भगवान् भी इसके अधीन हो जाते हैं। इतना ही नहीं, इसके अधीन हो जाते हैं। इतना ही नहीं, इसके अधीन होकर वे आनन्द का अनुभव करते हैं। इतनी स्वतंत्रता भगवान् ने इस जीवात्मा को दे रखी है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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