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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
52. गीता में लोकसंग्रह
‘लोक’ शब्द स्वर्ग, मृत्यु और पाताल- इन तीन लोकों का वाचक है। इन तीनों लोकों की मर्यादा को स्थायी रखने के लिए कर्म करना ‘लोकसंग्रह’ है। यह लोकसंग्रह मनुष्य के ही अधीन है क्योंकि मनुष्य शरीर में किए गये कर्मों के फलस्वरूप में ही ये स्वर्ग, मृत्यु और पाताल- तीनों लोक होते हैं।[1] जिसको लोग आदर की दृष्टि से देखते हैं, आदर्श मानते हैं, और जिसके आचरणों तथा वचनों से लोग उन्मार्ग से बचकर सन्मार्ग पर चलते हैं, उसके द्वारा लोकसंग्रह होता है। यह लोकसंग्रह साधक, सिद्ध और भगवान्- इन तीनों के द्वारा होता है जैसे- 1. साधक के द्वारा लोकसंग्रह - भगवान् ने अर्जुन को साधकमात्र का प्रतिनिधि बनाकर कहा कि पहले राजा जनक जैसे महापुरुष कर्मों के द्वारा ही परमसिद्धि को प्राप्त हुए हैं लोकसंग्रह को देखते हुए तू भी उनकी अनासक्तभाव से कर्म करने के योग्य है।[2] 2. सिद्ध के द्वारा लोकसंग्रह- सिद्ध महापुरुष जो-जो आचरण करते हैं, अन्य मनुष्य भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं और वे अपनी वाणी से जो कुछ कह देते हैं, दूसरे लोग भी उसी का अनुवर्तन करते हैं।[3] कर्मों में आसक्त मनुष्य जिस प्रकार सावधानी और तत्परता पूर्वक कर्म करते हैं, सिद्ध महापुरुष भी लोकसंग्रह की इच्छा से अनासक्त भाव से उसी प्रकार कर्म करे।[4] 3. भगवान् के द्वारा लोकसंग्रह- भगवान् अपने विषय में कहते हैं कि त्रिलोकी में मेरे न तो कुछ करना बाकी है और न कुछ पाना बाकी है, तो भी मैं कर्तव्य कर्म करता हूँ। यदि मैं निरालस्य होकर कर्तव्य कर्म न करूँ तो लोग मेरा ही अनुवर्तन करेंगे अर्थात् वे भी अपना कर्तव्य कर्म छोड़ देंगे, जिससे उनका पतन हो जाएगा। अतः यदि मैं कर्तव्य-कर्म न करूँ तो मैं संकरता को उत्पन्न करने वाला और प्रजा का नाश करने वाला बन जाऊँगा।[5] तात्पर्य है कि वास्तव में लोकसंग्रह भगवान् और सिद्ध के द्वारा ही होता है क्योंकि उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता। ऐसे तो साधक भी मर्यादा में चलता है और उसके द्वारा लोकसंग्रह होता है, पर वैसा लोकसंग्रह नहीं होता; क्योंकि साधक में अपने कल्याण का प्रयोजन भी रहता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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