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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
31. गीता में द्विध सत्ता का वर्णन
सत्ता दो प्रकार की होती है- विकारी और अविकारी। उत्पन्न होने के बाद जो सत्ता होती है, वह ‘विकारी सत्ता’ कहलाती है क्योंकि उसमें निरंतर परिवर्तन होता रहता है। जो सत्ता स्वतः सिद्ध है, वह ‘अविकारी सत्ता’ कहलाती है क्योंकि उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता। अतः गीता में दूसरे अध्याय के सोलहवें श्लोक में भगवान् कहते हैं कि जिसका कभी भाव (सत्ता) नहीं होता, वह असत् है, विकारी सत्ता है और जिसका कभी अभाव नहीं होता, वह सत् है, अविकारी सत्ता है- ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’। उत्पन्न होना, उत्पन्न होने के बाद सत्तावाला दीखना, बढ़ना, अवस्थान्तर होना (बदलना), क्षीण होना और नष्ट होना- ये छः विकार मात्र संसार में होते हैं। जैसे, बच्चा पैदा होता है, पैदा होने के बाद ‘बच्चा है’ ऐसा दीखता है, वह बढ़ता है, उसकी अवस्थाओं का परिवर्तन होता है, वह क्षीण होता है और अंत में मर जाता है। ये छः विकार शरीर-संसार में ही होते हैं, आत्मा में नहीं। कारण कि आत्मा न जन्मती है, न पैदा होकर सत्तावाली होती है, न बढ़ती है, न बदलती है, न क्षीण होती है और न मरती ही है।[1] गीता में जहाँ-जहाँ शरीर और संसार का वर्णन है, वह सब ‘विकारी सत्ता’ का वर्णन है और जहाँ-जहाँ परमात्मा और आत्मा का वर्णन है, वह सब ‘अविकारी सत्ता’ का वर्णन है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (2।20)
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