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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
22. गीता में विभूति वर्णन
भगवान् ने साधक के अन्यभाव (परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ है- इस भाव) को हटाने के लिए गीता के सातवें, नवें, दसवें और पंद्रहवें- इन चार अध्यायों में अपनी विभूतियों का वर्णन किया है। सातवें अध्याय के सातवें श्लोक में भगवान् ने ‘मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति’ ‘मेरे से बढ़कर इस जगत का दूसरा कोई किञ्चिन्मात्र भी कारण नहीं है’- ऐसा कहा और उसके उसके बाद आठवें श्लोक से बारहवें श्लोक तक कारण रूप से अपनी सत्रह विभूतियों का वर्णन किया। कारणरूप से विभूतियाँ बताने का तात्पर्य यह है कि कार्य में तो गुणों की भिन्नता होती है, पर कारण में गुणों की भिन्नता नहीं होती। जैसे आकाश का कार्य शब्द है और शब्द वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक रूप से कई तरह का होता है परंतु कारण रूप से आकाश एक ही रहता है। ऐसे ही परमात्मा का कार्य संसार है और परमात्मा कारण हैं। गुणों की भिन्नता से संसार कई तरह का होता है परंतु उन सबमें कारण रूप से परमात्मा एक ही रहते हैं। जो मनुष्य कार्य- संसार में आसक्त हो जाते हैं, वे तो बँध जाते हैं, पर जो मनुष्य कारण रूप से एक परमात्मा को ही देखते हैं, वे बँधते नहीं, प्रत्युत कार्य से सर्वथा असंग होकर ‘वासुदेवः सर्वम्’ ‘सब कुछ परमात्मा ही है’- इसका अनुभव कर लेते हैं। नवें अध्याय के सोलहवें श्लोक में उन्नीसवें श्लोक तक भगवान् ने कार्य-कारण रूप से सैंतीस विभूतियों का वर्णन किया। तात्पर्य है कि कार्य-कारण, असत्-सत्, अनित्य-नित्य, असार-सार आदि जो कुछ भी है, वह सब परमात्मा ही हैं। परमात्मा के सिवाय दूसरा कोई है ही नहीं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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