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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
36. गीता और संसार में रहने की विद्या
भगवद्गीता एक बहुत विलक्षण ग्रंथ है इसको देखने से, इसको गहरा उतरकर समझने से ऐसा मालूम होता है कि जिसको तत्त्वज्ञान, भगवद्दर्शन, भगवत्प्रेम, कल्याण, मुक्ति, उद्धात कहते हैं, वह गीता के अनुसार सांसारिक छोटा-बड़ा काम करते हुए हो जाता है।[1] आश्रमों के परिवर्तन की तथा भजन, ध्यान, जप-कीर्तन आदि कर्मों के परिवर्तन की जो बातें आती हैं, गीता के अनुसार उनकी आवश्यकता नहीं है। मनुष्य जिस वर्ण में, जिस आश्रम में, जिस स्थान में है, वह वहाँ ही रहकर निष्कामभाव से तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करके परमात्मप्राप्ति कर सकता है।[2] उसके लिये आश्रम आदि के नये परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है। तात्पर्य है कि गीता ने प्राप्त परिस्थिति के सदुपयोग से कल्याण की बात बतायी है अर्थात व्यवहार में परमार्थ-सिद्धि की कला, विद्या बतायी है। इस विद्या में दो बाते मुख्य है- अपने कर्तव्य का पालन करना और दूसरो के अधिकार की रक्षा करना।[3] सम्बन्धियों का, कुटुम्बियों का हमारे पर जो अधिकार है, उसकी बिना किसी प्रत्युपकारी इच्छा से, बिना किसी लोभ के, बिना किसी दबाव के रक्षा करनी है। जिस तरह से वे राजी रहें, सुखे रहें, उनका कल्याण हो, वैसा काम करते हुए अपनी बुद्धि, बल, योग्यता आदि को बचाकर न रखे। भगवान् की आज्ञा समझकर बड़ी तत्परता से उनकी सेवा करता रहे। जैसे, माता-पिता की जो माँग की आवश्यकता है, वह न्याययुक्त हो और अपने में उसको पूरा करने की सामर्थ्य हो, तो उसको पूरा कर देना चाहिये। परन्तु वे हमारे अनुकूल बन जायँ-ऐसी इच्छा किश्चिन्मात्र भी नहीं रहनी चाहिये। इस प्रकार भाई-भौजाई, स्त्री-पुत्र, नौकर, पड़ोसी आदि सबका हित करना चाहिये। और तो क्या, अपने घर के गाय, बैल, ऊँट, भेड़, बकरी आदि का भी हित करना चाहिये। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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