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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
38. गीता में विभिन्न मान्यताएँ
भगवान् की मान्यता
भगवान् की मान्यता में भक्ति का अधिक महत्त्व है अर्थात् भगवान् अपनी भक्ति को विशेष आदर देते हैं और उसको सर्वोपरि मानते हैं। ऐसे तो भगवान् ने ज्ञानयोग, कर्मयोग, ध्यानयोग, गीताध्ययन आदि में भी अपनी मान्यता बतायी है, पर भक्ति जैसी नहीं। तीसरे अध्याय के तीसवें श्लोक में भगवान् ने अपनी भक्ति की बात कही और उसी बात को वे इकतीसवें-बत्तीसवें श्लोकों में अन्वय व्यतिरेक से पुष्ट करते हुए कहते हैं कि जो मनुष्य दोषदृष्टिरहित होकर श्रद्धापूर्वक मेरे इस मत का अनुष्ठान करते हैं, वे कर्मों से मुक्त हो जाते हैं परंतु दोषदृष्टि और अश्रद्धा करने वाले जो मनुष्य मेरे इस मत का अनुष्ठान नहीं करते, उनका पतन हो जाता है। ध्यानयोगी की दृष्टि का वर्णन करते हुए भगवान् कहते हैं कि जो ध्यानयोगी अपने शरीर की उपमा से सबको समान देखता है तथा सुख और दुख को भी समान देखता है, वह योगी श्रेष्ठ माना गया है।[1] ध्यानयोग का वर्णन सुनकर जब अर्जुन मन की चंचलता को दूर करना बड़ा कठिन बताते हैं, तब भगवान् मन की चंचलता को दूर करने के लिए अभ्यास और वैराग्य- ये दो उपाय बताकर इस विषय में अपनी मान्यता बताते हैं कि ‘जिसका मन वश में (संयत) नहीं है, उसके द्वारा ध्यानयोग सिद्ध होना कठिन है और जिसका मन वश में है, उसके द्वारा ध्यानयोग सिद्ध हो जाता है- ऐसा मेरा मत है’।[2] योगभ्रष्ट के विषय में अर्जुन का संदेह दूर करने के बाद भगवान् कहते हैं कि जो मेरे में तल्लीन हुए अंतःकरण से श्रद्धा प्रेमपूर्वक मेरा भजन करता है, वह मेरा भक्त ज्ञानयोगी, कर्मयोगी आदि संपूर्ण योगियों से श्रेष्ठ है- ऐसा मेरा मत है।[3] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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