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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
97. गीता पाठ की विधियाँ
मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह जब अति रुचिपूर्वक कोई कार्य करता है, तब वह उस कार्य में तल्लीन, तत्पर, तत्स्वरूप हो जाता है। ऐसा स्वभाव होने पर भी वह प्रकृति और उसके कार्य- (पदार्थों, भोगों) के साथ अभिन्न नहीं हो सकता; क्योंकि वह इनसे सदा से ही भिन्न है। परंतु परमात्मा के नाम का जप, परमात्मा का चिंतन, उसके सिद्धांतों का मनन आदि के साथ मनुष्य ज्यों-ज्यों अति रुचिपूर्वक संबंध जोड़ता है, त्यों-ही-त्यों वह इनके साथ अभिन्न हो जाता हो जाता है, इनमें तल्लीन, तत्पर, तत्स्वरूप हो जाता है; क्योंकि वह परमात्मा के साथ सदा से ही स्वतः अभिन्न है। अतः मनुष्य भगवच्चिन्तन करे; भगवद्भविषयक ग्रंथों का पठन-पाठन करे; गीता, रामायण, भागवत आदि ग्रंथों का पाठ, स्वाध्याय करे, तो अति रुचिपूर्वक तत्परता से करे, तल्लीन होकर करे, उत्साहपूर्वक करे। यहाँ गीता का पाठ करने की विधि बतायी जाती है। गीता का पाठ करने के लिए कुश का, ऊन का अथवा टाटका आसन बिछाकर उस पर पूर्व अथवा उत्तर की ओर मुख करके बैठना चाहिए। गीता पाठ के आरंभ में इन मंत्रों का उच्चारण करे-
इन मंत्रों की व्याख्या इस प्रकार- जैसे माला में अनेक मणियाँ अथवा पुष्प पिरोये जाते हैं, ऐसे ही भगवान् के गाये हुए जितने श्लोक अर्थात् मंत्र हैं, वे सभी श्रीमद्भगवद्गीतारूपी माला की मणियाँ हैं। इस श्रीमद्भगवद्गीता रूपी माला के मंत्रों के द्रष्टा अर्थात् सबसे पहले इन मंत्रों का साक्षात्कार करने वाले ऋषि भगवान् वेदव्यास हैं- ‘ऊँ अस्य श्रीमद्भगवद्गीता मालामन्त्रस्य भगवान् वेदव्यास ऋषिः। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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