विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
13. गीता में धर्म
गीता में धर्म का वर्णन मुख्य है। अगर गीता के आरम्भ और अन्त के अक्षरों का प्रत्याहार बनाया जाय अर्थात् आरम्भ के 'धर्मक्षेत्रे'[1] पद से 'धर' और अन्त के 'मतिर्मम'[2] पदसे 'म' लिया जाय, तो 'धर्म' प्रत्याहार बन जाता है। अत: पूरी गीता ही धर्म के अंतर्गत आ जाती है। गीता ने 'कुलधर्मा सनातन:',[3] 'जातिधर्म:'[4] पदों से सदा से चलती आयी कुल की मर्यादाओं, रीतियों, परम्पराओं और जाति की रिवाजों को भी 'धर्म' कहा है,'धर्मसम्मूढचेता:'[5], 'स्वधर्मम्, धम्यांत्[6], 'धर्म्यम्, स्वधर्मम्'[7], 'स्वधर्म:'[8] आदि पदों से अपने-अपने वर्णन के अनुसार शास्त्रविहित कर्तव्य कर्मों को भी 'धर्म' अथवा 'स्वधर्म' कहा है और 'त्रयीधर्मम्'[9] पद से वैदिक अनुष्ठानों को भी 'धर्म' कहा है। इन सभी धर्मों को कर्तव्यमात्र समझकर निष्काम भावपूर्वक तत्परता से किया जाय, तो परमात्मत्त्व की प्राप्ति हो जाती है।[10] जो मनुष्य जिस वर्ण में पैदा हुआ है उस वर्ण के अनुसार शास्त्र ने उसके लिये कर्तव्य रूप से जो कर्म नियत कर दिया है, वह कर्म उसके लिये 'स्वधर्म' है। परंतु शास्त्र ने जिसके लिये जिस कर्म का निषेध कर दिया है, वह कर्म दूसरे वर्ण वाले के लिये विहित होने पर भी (जिसके लिये निषेध किया है) उसके लिये 'परधर्म' है। अच्छी तरह से अनुष्ठान में लाये हुए परधर्म की अपेक्षा गुणों की कमी वाला भी अपना धर्म श्रेष्ठ है। अपने धर्म का पालन करते हुए मृत्यु भी हो जाय, तो भी अपना धर्म कल्याण करने वाला है परन्तु परधर्म का आचरण करना भय को देने वाला है।[11] वर्ण-आश्रम के कर्म के अतिरिक्त मनुष्य को परिस्थिति रूप से जो कर्तव्य प्राप्त हो जाय, उस कर्तव्य का पालन करना भी मनुष्य का स्वधर्म है। जैसे- कोई विद्यार्थी है तो तत्परता से विद्या पढ़ना उसका स्वधर्म है कोई शिक्षक है तो विद्यार्थी को पढ़ाना उसका स्वधर्म है कोई नौकर है तो अपने कर्तव्य का पालन करना उसका स्वधर्म है आदि- आदि। जो स्वीकार किये हुए कर्म (स्वधर्म) का निष्काम भाव से पालन करता है, उसको परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।[12] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (1।1)
- ↑ (18।78)
- ↑ (1।40)
- ↑ (1।43)
- ↑ (2।7)
- ↑ (2।39)
- ↑ (2।33)
- ↑ (3।35; 18।49)
- ↑ (9।21)
- ↑ (18।45)
- ↑ (3।35)
- ↑ (18।45)
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