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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
67. गीता में आश्रय वर्णन
जीवमात्र का यह स्वभाव है कि वह किसी न किसी का आश्रय लेना चाहता है और लेता भी है। मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, लता आदि सभी किसी न किसी का आश्रय लेते ही हैं; क्योंकि जीवमात्र साक्षात् परमात्मा का अंश है। अतः जब तक यह जीव अपने अंशी परमात्मा का आश्रय नहीं लेगा, तब तक यह दूसरों का आश्रय लेता ही रहेगा, पराधीन होता ही रहेगा, दुख पाता ही रहेगा। मनुष्य तो विवेक प्रधान प्राणी है पर अपने विवेक को महत्त्व न देकर यह स्वयं साक्षात् अविनाशी परमात्मा का चेतन अंश होता हुआ भी नाशवान् जड़ का आश्रय ले लेता है अर्थात् शरीर, बल, बुद्धि, योग्यता, कुटुम्ब-परिवार, धन-संपत्ति आदि का आश्रय ले लेता है- यह इसकी बड़ी भारी गलती है। गीता में अर्जुन ने भगवान् का आश्रय लेकर ही अपने कल्याण की बात पूछी है।[1] अर्जुन ने जब तक भगवान् का आश्रय नहीं लिया, तब तक गीता के उपदेश का आरंभ ही नहीं हुआ। उपदेश के अंत में भी भगवान् ने अपना आश्रय लेने की बात कही है।[2] इस प्रकार गीता के उपदेश का आरंभ और उपसंहार भगवदाश्रय में ही हुआ है। भगवान् से मिली हुई स्वतंत्रता के कारण मनुष्य किसी का भी आश्रय ले सकता है। अतः कई मनुष्य अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए देवताओं का आश्रय लेते हैं,[3] पर परिणाम में उनको नाशवान् फल ही मिलता है।[4] कई मनुष्य भोगों की कामना से वेदों में कहे हुए सकाम अनुष्ठानं का आश्रय लेते हैं, पर परिणाम में वे आवागमन को प्राप्त होते हैं।[5] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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