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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
10. गीता में भगवान् की उदारता
अर्जुन ने भगवान के ऐश्वर्य- (सशस्त्र एक अक्षौहिणी नारायणी सेना-) को छोड़कर भगवान को स्वीकार किया तो उनको भगवान् भी मिले और साथ ही साथ ऐश्वर्य भी मिला। भगवान् ने अर्जुन के लिए छोटे से छोटा काम किया अर्थात् पाण्डवों की सात अक्षैहिणी सेना में भगवान् अर्जुन के सारथि बने[1] यह भगवान् की कितनी उदारता है! जो अनन्त सृष्टियों को धारण करने वाले हैं सबका पालन पोषण करने वाले हैं, वे भक्तों के लिए मनुष्य रूप धारण कर लेते हैं[2] यह उनकी कितनी उदारता है! जो समता का जिज्ञासु है अर्थात् समता प्राप्त करना चाहता है, वह भी वेदों में कहे हुए सकाम अनुष्ठानों का, बड़े-बड़े भोगों का अतिक्रमण कर जाता है।[3] समतावाला योगी वेदों में, यज्ञों में, तपों में और दान में जितने पुण्यफल कहे गये हैं, उन सबका अतिक्रमण कर जाता है।[4] समता का उद्देश्य होने मात्र से भगवान् उसको कितना ऊँचा पद देते हैं। भगवान् के विधान में कितनी उदारता भरी हुई है! वास्तव में आर्त और अर्थार्थी भक्त उदार नहीं हैं परंतु भगवान् की यह विशेष उदारता है कि जो जिस किसी भाव से भगवान् में लग जाता है, भगवान् के सम्मुख हो जाता है, उसको भगवान् उदार मानते हैं- ‘उदाराः सर्व एवैते’[5] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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