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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
90. गीता में आये ‘मत्तः’ पद का तात्पर्य
सबके मूल में परमात्मा ही हैं। परमात्मा के सिवाय दूसरा कोई कारण है ही नहीं और हो सकता ही नहीं। सृष्टि की रचना, प्रलय आदि का कार्य करने में परमात्मा किसी की भी मदद नहीं लेते; क्योंकि वे सर्वदा-सर्वथा समर्थ और स्वतंत्र हैं। वे सब कुछ करने में अथवा न करने में तथा उलट पलट करने में सर्वथा स्वतंत्र है। संसार में जो कुछ प्रभाव देखने में आता है, वह सब परमात्मा का ही है, वस्तु, व्यक्ति आदि का नहीं। रावण ने हनुमान जी से पूछा- ‘हे बंदर! तुम किसके दूत हो? किसके बल से तुमने वाटिका उजाड़ी है?’ उत्तर में हनुमानजी ने कहा- ‘जिनकी शक्ति से तुमने संपूर्ण चर-अचर को जीत लिया है, सबको अपने वश में कर लिया है, मैं उन्हीं का दूत हूँ।’ हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद जी से पूछा- ‘तू जिसका नाम लेता है वह कौन है?’ उत्तर में प्रह्लाद जी ने कहा- ‘पिताजी! जिनकी शक्ति से आपने देवता, दानव आदि सब पर विजय की है, मैं उन्हीं का नाम लेता हूँ।’ तात्पर्य है कि सबमें उस परमात्मा की ही शक्ति है। उसके सिवाय दूसरा कोई ऐसा स्वतंत्र शक्तिशाली है ही नहीं। इसी बात का वर्णन भगवान् ने गीता में ‘मत्तः’ पद से किया है; जैसे-
मेरे सिवाय इस संसार का दूसरा कोई कारण है ही नहीं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (7।7)
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