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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
71. गीता में साधकों की दो दृष्टियाँ
1. परमात्मा और संसार का वर्णन गीता में विविध प्रकार से हुआ है। वह विविध प्रकार भी साधकों की दृष्टि से ही है। जिन साधकों की दृष्टि में सब कुछ भगवान् ही हैं, भगवान् के सिवाय कुछ है ही नहीं, वे ‘भक्तियोगी’ कहलाते हैं। जिन साधकों की दृष्टि में सब संसार गुणमय है, प्रकृतिजन्य गुणों के सिवा कुछ है ही नहीं, वे ‘ज्ञानयोगी’ कहलाते हैं। इस तरह साधकों की दो दृष्टियाँ हैं- भक्तिदृष्टि और ज्ञानदृष्टि। श्रद्धा विश्वास की मुख्यता से भक्तियोग चलता है और विवेक विचार की मुख्यता से ज्ञानयोग चलता है। भक्तियोग में भक्त ऐसा मानता है कि सब कुछ भगवान् ही हैं- ‘वासुदेवः सर्वम्’[1] भगवान् ने भी कहा है कि मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ।[2] सूत से बनी हुई माला की तरह यह सब संसार मुझमें ही ओतप्रोत है।[3] ये सात्त्विक, राजस और तामस भाव भी मेरे से ही होते हैं, पर मैं उनमें और वे मेरे में नहीं है अर्थात् सब कुछ मैं ही मैं हूँ।[4] सत् और असत् अर्थात् जड़ और चेतन जो कुछ है, वह सब मैं ही हूँ।[5] बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह आदि भाव मेरे से ही होते हैं।[6] मैं सबका प्रभव अर्थात् मूल कारण हूँ और सब मेरे से ही चेष्टा करते है[7] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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