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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
11. गीता में भगवान् की न्यायकारिता और दयालुता
जहाँ न्याय किया जाता है, वहाँ दया नहीं हो सकती और जहाँ दया की जाती है, वहाँ न्याय नहीं हो सकता। कारण कि जहाँ न्याय किया जाता है, वहाँ शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार पुरस्कार अथवा दण्ड दिया जाता है; और जहाँ दया की जाती है, वहाँ दोषी के अपराध को माफ कर दिया जाता है, उसको दण्ड नहीं दिया जाता है। तात्पर्य है कि न्याय करना और दया करना- ये दोनों आपस में विरोधी हैं। ये दोनों एक जगह रह नहीं सकते। जब ऐसी ही बात है तो फिर भगवान् में न्यायकारिता और दयालुता- दोनों कैसे हो सकते हैं? परंतु यह अड़चन वहाँ आती है, जहाँ कानून (विधान) बनाने वाला निर्दयी हो। जो दयालु हो, उसके बनाये गये कानून में न्याय और दया- दोनों रहते हैं। उसके द्वारा किए गये न्याय भी दयालुता रहती है और उसके द्वारा की गयी दया में भी न्यायकारिता रहती है। भगवान् संपूर्ण प्राणियों के सुहृद् हैं- ‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ [1] अतः उनके बनाये हुए विधान में दयालुता और न्यायकारिता- दोनों रहती हैं। भगवान् ने गीता में कहा है कि मनुष्य अंत समय में जिस-जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है, वह उस भाव को प्राप्त होता है अर्थात् अंतिम स्मरण के अनुसार ही उसकी गति होती है।[2] यह भगवान् का न्याय है, जिसमें कोई पक्षपात नहीं है। इस न्याय में भी भगवान् की दया भरी हुई है। जैसे, अंत समय में अगर कोई कुत्ते का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है तो वह कुक्ते की योनि को प्राप्त हो जाता है अगर कोई भगवान् का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है तो वह भगवान् को प्राप्त हो जाता है। तात्पर्य है कि जितने मूल्य में कुत्ते की योनि मिलती है, उतने ही मूल्य में भगवान् की प्राप्ति हो जाती है! इस प्रकार भगवान् के कानून में न्यायकारिता होते हुए भी महती दयालुता भरी हुई है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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