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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
66. गीता का आरंभ और पर्यवसान शरणागति में
भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन साथ-साथ ही रहते थे। साथ-साथ रहने पर भी जब तक अर्जुन ने भगवान् की शरण होकर अपने कल्याण की बात नहीं पूछी, तब तक भगवान् ने उपदेश नहीं दिया। मनुष्य शरण कब होता है? जब मनुष्य सच्चे हृदय से अपना कल्याण चाहता है, पर उसको अपने कल्याण का कोई रास्ता नहीं दीखता और उसका बल, बुद्धि, योग्यता आदि काम नहीं करते, तब वह गुरु, ग्रंथ अथवा भगवान् की शरण होता है। अर्जुन की भी ऐसी ही दशा थी। उनको क्षात्रधर्म की दृष्टि से तो युद्ध करना ठीक मालूम देता है, पर कुशलनाश की दृष्टि से युद्ध न करना ही ठीक जँचता है। इसलिए युद्ध करना ठीक है अथवा न करना ठीक है- इसका वे निर्णय नहीं कर पाये। अगर भगवान् की सम्मति से युद्ध किया भी जाए तो हमारी विजय होगी अथवा पराजय होगी- इसका भी उन्हें पता नहीं और युद्ध में कुटुम्बियों को मारकर वे जीना भी नहीं चाहते।[1] ऐसी अवस्था में अर्जुन भगवान् की शरण होते हैं।[2] भगवान् की शरण होने पर भी अर्जुन के मन में यह बात जँची हुई है कि युद्ध करने से हमें अधिक से अधिक पृथ्वी का धन-धान्यसंपन्न राज्य ही मिल सकता है। अगर इससे भी अधिक माना जाय तो देवताओं का आधिपत्य मिल सकता है; परंतु इससे इंद्रियों को सुखाने वाला मेरा शोक दूर नहीं हो सकता।[3] दूसरी बात, मैं भगवान की शरण हो गया हूँ अत: अब भगवान चट कह देगे कि 'तू युद्ध कर', जबकि युद्ध से मेरे को कोई लाभ नहीं दीखता। अत: अर्जुन भगवान् से कुछ बोले बिना अपनी तरफ से साफ-साफ कह देते हैं कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा'-'न योत्स्ये'[4] मनुष्य जिसके शरण हो जाय उसकी बात यदि समझ न भी आये, तो भी उसमें यह दृढ़ विश्वास रहना चाहिये कि इनकी बात मानने से मेरा भला ही होगा। अर्जुन को भी भगवान पर दृढ़ विश्वास था कि यद्यापि मेरे को अपनी दृष्टि से युद्ध करने में किसी तरह का लाभ नहीं दीखता, तथापि भगवान् जो भी कह रहे है, वह ठीक ही है। इसलिये गीता में अर्जुन तरह-तरह की शंकाएं तो करते रहे, पर वे भगवान् से विमुख नहीं हुए। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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