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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
61. गीता में सत्, चित् और आनन्द
गीता में सन्, चित् और आनन्द इन तीनों का वर्णन आता है। परंतु वेदान्त-ग्रंथों में इन तीनों का जैसा क्रम से वर्णन आता है, वैसा क्रम से वर्णन गीता में नहीं आता क्योंकि गोता एक सिद्धांत-ग्रंथ है, प्रक्रिया-ग्रंथ नहीं है। 'सत्' शब्द सत्ता का वाचक 'चित्' शब्द ज्ञानका वाचक और 'आनन्द' शब्द सर्विपरि सुखका वाचक है। सत्सत्ता दो प्रकार की होती है- स्वत:सिद्ध अविकारी सत्ता और उत्पन्न होने वाली विकारी सत्ता। अविकारी सत्ता परमात्मा एवं जीवात्मा की है और विकारी सत्ता संसार एवं शरीर की है। अविकारी सत्ता का कभी अभाव नहीं होता- 'नाभावो विद्यते सत:'[1] और विकारी सत्ता का कभी भाव नहीं होता- 'नासतो विद्यते भाव:'[2] उत्पन्न होना, 'है'- रूप से दीखना बढ़ना, परिवर्तित होना, क्षीण होना और नष्ट होना- ये छ: विकार अविकारी सत्ता में नहीं होते अर्थात् वह सत्ता इन छ: भावविकारों से रहित है। ये छ: भावविकार विकारे सत्ता में होते हैं; जैसे-संसार एवं शरीर उत्पन्न होता है, उत्पन्न होने के बाद है' -रूप से दीखता है, बढ़ता है, परिवर्तित होता है अर्थात एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्थाको प्राप्त होता है, क्षीण होता है और नष्ट हो जाता है। गीता में उपर्युक्त दोनों सत्ताओं का वर्णन एक साथ ही हुआ है जैसे- गतिशील प्राणियों में जो गतिरहित है, विषम प्राणियों में जो समरूप से स्थित है और नष्ट होने वाले प्राणियों ने जो विनाशरहित है।[3] सम्पूर्ण विभक्त प्राणियों में जो विभागरहित है।[4] जिसके अंतर्गत सम्पूर्ण प्राणी है और जो सम्पूर्ण प्राणियों में ओतप्रोत है,[5] आदि। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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