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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
9. गीता में आहारी का वर्णन
मनुष्यों की जो स्वाभाविक वृत्ति, स्थिति, भाव बनता है, उसके बनने में कई कारण होते हैं। उनमें आहार भी एक कारण है। कहावत भी है कि ‘जैसा खाये अन्न, वैसा मन’। अतः आहार जितना सात्त्विक होता है, मनुष्य की वृत्ति उतनी ही सात्त्विक बनती है अर्थात् सात्त्विक वृत्ति के बनने में सात्त्विक आहार से सहायता मिलती है। गीता में आहार का स्वतंत्ररूप से वर्णन नहीं हुआ है, प्रत्युत आहारी- (व्यक्ति) का वर्णन होने से आहार का वर्णन हुआ है; जैसे- सात्त्विक व्यक्ति को प्रिय होने से सात्त्विक आहार का, राजस व्यक्ति को प्रिय होने से राजस आहार का और तामस व्यक्ति को प्रिय होने से तामस आहार का वर्णन हुआ है।[1] अतः गीता में जहाँ-जहाँ आहार की बात आयी है, वहाँ-वहाँ भगवान् ने आहारी का ही वर्णन किया है जैसे- ‘नियताहाराः’[2] पद में नियमित आहार करने वाले का, ‘नात्यश्रतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्रतः’[3] पदों में अधिक खानेवाले और बिल्कुल न खाने वाले का, ‘युक्ताहारविहारस्य’[4] पद में नियमित खाने वाले का, ‘यदश्रासि’[5] पद में भोजन के पदार्थ को भगवान् के अर्पण करने वाले का, और ‘लघ्वाशी’[6] पद में अल्प भोजन करने वाले का वर्णन किया गया है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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