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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
83. गीता में भगवान की वर्णन-शैली
भगवान जहाँ ज्ञान का वर्णन करते है, वहाँ फल में भक्ति का वर्णन करते हैं जैसे- अठारहवें अध्याय के उन्चासवें श्लोक से पचपनवें श्लोक तक ज्ञान का प्रकरण है, पर ज्ञान के फल के रूप में भगवान ने अपनी पराभक्ति की प्राप्ति बतायी है- 'मद्भक्तिं लभते पराम्'। ऐसे ही भगवान जहाँ भक्ति का वर्णन करते है, वहाँ फल में ज्ञान का वर्णन करते हैं; जैसे- दसवे अध्याय के आठ वें श्लोक से ग्यारहवें श्लोक तक भक्ति का प्रकरण है, पर भक्ति के फल के रूप में भगवान ने ज्ञानकी प्राप्ति बतायी है- 'अज्ञानजं तम:'ज्ञानदीपेन भास्वता'। जहाँ ज्ञान के साधनों का वर्णन है, वहाँ भगवान ने अपनी अनन्य अव्यभिचरिणी भक्ति को ज्ञान का साधन बताया है;[1] जहाँ गुणातीत होने का वर्णन है, वहाँ भगवान ने गुणातीत होने का उपाय भक्ति को बताया है[2] और जहाँ भक्ति का प्रकरण है, वहाँ भगवान ने तत्त्व से जानने की बात अर्थात् ज्ञान की बात बतायी है।[3] तात्पर्य यह हुआ कि ज्ञान में भक्ति और भक्ति में ज्ञान आवश्यक है। अत: ज्ञानमार्गी साधक को चाहिये कि वह भक्ति का और ज्ञानमार्गी का तिरस्कार, निरादर आदि न करे; और भक्तिमार्गी साधक को चाहिये कि वह ज्ञान का और ज्ञानमार्गी का तिरस्कार, निरादर न करे। कारण कि यदि ज्ञानमार्गी और भक्तिमार्गी एक-दूसरे का तिरस्कार, निंदा करेंगे तो उनका साधन सिद्ध नहीं होगा, उसमें बांधा लग जायगी अर्थात उनके द्वारा साधक का और उसके साधन का जो तिरस्कार होगा, वह उनके साधन की सिद्धि में बाधक हो जायेगा। अत: सभी साधकों को चाहिये कि वे साधक मात्र के प्रति सद्भाव रखें। ऐसे तो परमात्मा का अंश होने से प्राणि मात्र के प्रति सद्भाव होना ही चाहिये, पर उन प्राणियों में से जो ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि किसी भी साधन से भगवान में लगे हुए हैं, उन साधकों के तो विशेष आदर होना चाहिये। ऐसा करने से साधक के साधन की सिद्धि शीघ्र हो जायगी। गीता में भगवान् ने भी किसी के मत का खण्डन या निंदा न करके अपना मत बताया है[4] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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