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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
89. गीता में आये विपरीत क्रम का तात्पर्य
एक तो मोह ममता का संबंध होता है और एक धर्म का संबंध होता है। जहाँ मोह ममता का संबंध होता है, वहाँ पिता आप कुटुम्बी पहले याद आते हैं, पीछे आचार्य आदि याद आते हैं; और जहाँ धर्म का संबंध होता है, वहाँ आचार्य आदि पहले याद आते हैं, पीछे पिता आदि कुटुम्बी याद आते हैं। जब अर्जुन में कौटुम्बिक मोह-ममता की मुख्यता रहती है, तब उनकी दृष्टि सबसे पहले पिता की तरफ जाती है; और जब उनमें धर्म की मुख्यता रहती है, तब उनकी दृष्टि सबसे पहले आचार्य की तरफ जाती है।
भीष्म जी के साथ अर्जुन का कौटुम्बिक संबंध था। भीष्म जी बाल ब्रह्मचारी थे। वे शास्त्र और धर्म के तत्त्व को जानने वाले तथा लोकमात्र के आदरणी थे। महाभारत में भगवान् ने भीष्मजी को शास्त्रज्ञान का सूर्य बताया है। इस प्रकार भीष्मजी के ज्यादा आदरणीय, पूजनीय होने से अर्जुन सबसे पहले उन्हीं का नाम लेते हैं। आचार्य द्रोण अर्जुन का विद्यागुरु थे। अर्जुन के मन में गुरुजनों को मारने का पाप का भय था। अतः भगवान् सबसे पहले आचार्य द्रोण का नाम लेकर अर्जुन को यह बताना चाहते हैं कि जिन्होंने तेरे को शस्त्र-अस्त्र की विद्या सिखायी है, उनको क्षत्रिय धर्म की दृष्टि से मार भी दे, तो भी तेरे को पाप नहीं लगेगा। कारण कि मेरे द्वारा मारे हुए इन द्रोण आदि को मारने से तेरे द्वारा अपने प्राप्त कर्तव्य का पालन होगा। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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