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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
107. गीता में आर्ष प्रयोग
छान्दोग्योपनिषद् में इतिहास और पुराण को पाँचवाँ वेद कहा गया है- ‘इतिहासपुराणं पंचम वेदानां वेदम्’[1] ‘भारतं पंचमो वेदः’- यह उक्ति भी प्रसिद्ध है। पंचम वेद महाभारत के अंतर्गत गीता स्वतः प्रमाणभूत एक उपनिषद् है। यह बात प्रत्येक अध्याय के अंत में दी गयी पुष्पिका के ‘श्रीमद्भगवद्गीता सूपनिषत्सु’ पद से भी स्पष्ट हो जाती है। इस दृष्टि से गीता का प्रत्येक श्लोक वैदिक मंत्ररूप है। वेद में जो मंत्र, वाक्य अथवा छन्द जिस रूप में उपलब्ध हैं, वे उसी रूप में शुद्ध हैं। उन पर लौकिक अनुशासन या व्याकरण का नियम लागू नहीं हो सकता। फिर भी लौकिक अनुशासन की दृष्टि से जो प्रयोग साधु नहीं है या लोक में प्रयुक्त नहीं है, उनके लिए वैयाकरणों ने ‘छन्दसि दृष्टानुविधिः’ (वेद में जैसा प्रयोग देखा गया है, वह उसी रूप में विहित है)- यह सिद्धांत लागू कर दिया है। इसके अतिरिक्त लौकिक व्याकरण के सारे नियम और विधान वेद में विकल्पते होते हैं, जैसा कि ‘सर्वे विधियश्छन्दसि वैकल्पिकाः’- इस परिभाषा से सिद्ध है। इस परिभाषा का मूल ‘षष्ठीयुक्तश्छन्दसि वा’[2]- यह सूत्र है। इस सूत्र में ‘वा’ शब्द को पृथक् करके उसे स्वतंत्र सूत्र में ‘वा’ शब्द को पृथक् करके उसे स्वतंत्र सूत्र मान लेते हैं। इस क्रिया को योगविभाग कहते हैं। ‘वा’ में ‘छन्दसि’ पद की अनुवृत्ति होती है। तब उसका अर्थ इस प्रकार होता है- ‘सभी विधियाँ वेद में विकल्प से होती है।’ यह विकल्प बाहुलक रूप ही है। ‘बहुलं छन्दसि’ आदि सारी वैदिक प्रक्रिया इसी का विसातर है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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