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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
8. गीता में फलसहित विविध उपासनाओं का वर्णन
गीता में भगवान्, आचार्य, देवता, पितर, यक्ष-राक्षस, भूत-प्रेत आदि की उपासना का (विस्तार से अथवा संक्षेप से) फल सहित वर्णन हुआ है; जैसे- 1. अर्थीर्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी (प्रेमी)-ये चार प्रकार के भक्त भगवान् का भजन करते हैं अर्थात् उनकी शरण होते हैं।[1] भगवान् का पूजन, भजन करने वाले भक्त भगवान् को प्राप्त हो जाते हैं- ‘मद्भक्त यान्ति मामपि’;[2] ‘यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्’(9।25) [3] 2. जो वास्तव में जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ, भगवत्प्रेमी महापुरुष हैं, जिनका जीवन शास्त्रों के अनुसार है, वे ‘आचार्य’ होते हैं। ऐसे आचार्य की आज्ञा का पालन करना, उनके सिद्धांतों के अनुसार अपना जीवन बनाना ही उनकी उपासना है।[4] इस तरह आचार्य की उपासना करने वाले मनुष्य मृत्यु को तर जाते हैं।[5] 3. जो लोग कामनाओं में तन्मय होते हैं और भोग भोगना तथा संग्रह करना- इसके सिवाय और कुछ नहीं है, ऐसा निश्चय करने वाले होते हैं, वे भोगों की प्राप्ति के लिए वेदोक्त शुभकर्म करते हैं।[6] कर्मों की सिद्धि (फल) चाहने वाले मनुष्य देवताओं की उपासना किया करते हैं क्योंकि मनुष्यलोक में कर्मजन्य सिद्धि बहुत जल्दी मिल जाती है।[7] सुखभोग की कामनाओं के द्वारा जिनका विवेक ढक जाता है, वे भगवान् को छोड़कर देवताओं की शरण हो जाते हैं और अपने-अपने स्वभाव के परवश होकर कामनापूर्ति के लिए अनेक नियमों, उपायों को धारण करते हैं।[8] भगवान् कहते हैं कि जो-जो भक्त जिस-जिस देवता का पूजन करना चाहता है, उस-उस देवता के प्रति मैं उसकी श्रद्धा को दृढ़ कर देता हूँ। फिर वह उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता की उपासना करता है। परंतु उसको उस उपासना का फल मेरे द्वारा विधान किया हुआ ही मिलता है।[9] तीनों वेदों में विधान किए हुए सकाम कर्मों को करने वाले, सोमरस को पीने वाले पापरहित मनुष्य यज्ञों के द्वारा इंद्र का पूजन करके स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं।[10] कामनायुक्त मनुष्य श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओं का पूजन करते हैं, वे भी वास्तव में मेरा (भगवान् का) ही पूजन करते हैं; परंतु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक है।[11] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (7।16)
- ↑ (7।23)
- ↑ गीता में भगवान् की उपासना ही मुख्यता से वर्णन हुआ है। इस ‘गीता-दर्पण’ में भी कई शीर्षकों के अंतर्गत भगवान् की उपासना का अनेक प्रकार से विवेचन किया गया है। अतः यहाँ भगवान् की उपासना का वर्णन अत्यंत संक्षेप से किया गया है।
- ↑ (4।34; 13।7)
- ↑ (4।35; 13।25)
- ↑ (2।42-43)
- ↑ (4।12)
- ↑ (7।20)
- ↑ (7।21-22)
- ↑ (9।20)
- ↑ (9।23)
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