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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
104. गीता में अभिधा आदि शक्तियों का वर्णन
शब्द और अर्थ का आपस में घनिष्ठ संबंध होता है। किसी बात को, अर्थ को समझाना हो तो शब्दों के द्वारा ही समझाया जाता है और शब्दों के द्वारा वही समझ सकता है, जिसको उन शब्दों के अर्थ का ज्ञान हो। इस शब्द का यह अर्थ है- इसका ज्ञान कराने के लिए चार शक्तियाँ हैं- अभिधा, लक्षणा, व्यंजना और तात्पर्या। इनमें से अभिधा शक्ति तो सब जगह रहती ही है, उसके साथ लक्षणा आदि शक्तियाँ भी काम करती रहती हैं। गीता में अभिधा शक्तियाँ भी काम करती रहती हैं। गीता में अभिधा शक्ति तो सब जगह है ही, कहीं-कहीं लक्षणा आदि शक्तियाँ भी आयी हैं। इसका ज्ञान कराने के लिए अभिधा, लक्षणा आदि शक्तियों का थोड़ा सा दिग्दर्शन कराया जाता है। 1. अभिधा- जो शब्द के अर्थ को सीधा ही प्रकट करती है, वह ‘अभिधा शक्ति’ कहलाती है। अर्थात् वाच्य-वाचक के संबंध में वाचक (शब्द) अपने वाच्य- (वस्तु, व्यक्ति आदि) को जिस शक्ति से प्रकट करता है, उसको ‘अभिधा’ कहते हैं। जैसे, भगवान् ने कहा कि ‘अर्जुन! इस शरीर को क्षेत्र कहा जाता है’- ‘इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्र मित्यभिधीयते’[1] यहाँ ‘क्षेत्र’ की अभिधा शक्ति है। 2. लक्षणा- जिस शब्द अथवा वाक्य के अर्थ को प्रकट करने में अभिधा शक्ति काम नहीं करती, उस शब्द अथवा वाक्य का र्थ जिससे प्रकट होता है, वह ‘लक्षणा शक्ति’ कहलाती है। दूसरे शब्दों में वक्ता के लक्ष्य को बताने की जो वृत्ति है, उसको ‘लक्षण शक्ति’ कहते हैं। जैसे, अर्जुन ने कहा कि ‘जिन कुटुम्बियों के लिए हम राज्य, भोग और सुख चाहते हैं, वे ही धन और प्राणों की आशा को छोड़कर युद्ध करने के लिए सामने खड़े हैं- ‘प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च’[2] अगर जहाँ अभिधा शक्ति से सीधा यह अर्थ लिया जाय कि ‘प्राणों को छोड़कर खड़े हैं’ तो यह असंभव बात होगी; क्योंकि जिन्होंने प्राणों को छोड़ दिया है, वे खड़े कैसे हैं? और खड़े हैं तो प्राणों को छोड़ा कैसे? अतः यहाँ लक्षणा शक्ति से ‘वे प्राणों की (जीने की) भी आशा को छोड़कर खड़े हैं’- ऐसा अर्थ ही लेना पड़ेगा। इसी तरह ‘मदर्थे त्यक्तजीविताः’[3] आदि उदाहरण भी समझ लेने चाहिए। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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