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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
35. गीता में विविध विद्याएँ
1. शोक-निवृत्ति की विद्या- संसार में दो तरह से शोक होता है- जो मर गये हैं, उनके लिए और जो जीते हैं, उनके लिए। इस शोक को दूर करने के लिए भगवान् ने सत् और असत् के, शरीरी और शरीर के विवेक का वर्णन किया है। जो सत् है, अविनाशी है, अपरिवर्तनशील है, उसका कभी अभाव नहीं होता और जो असत् है, विनाशी है, परिवर्तनशील है, उसका भाव नहीं होता अर्थात् उसका अभाव ही होता है। तात्पर्य है कि इस शरीर में रहने वाले शरीरी- (जीवात्मा) का कभी अभाव नहीं होता। जैसे इस शरीर में कुमार, युवा और वृद्धावस्था होती है, पर उसमें रहने वाला जीवात्मा वही रहता है, ऐसे ही एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर की प्राप्ति होती है, पर जीवात्मा वही रहता है, उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं होता। ये सभी शरीर उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं, पर इन शरीरों में रहने वाले का कोई कभी नाश कर ही नहीं सकता। असत् शरीर आदि को लेकर शोक हो ही नहीं सकता क्योंकि वे कभी टिकते ही नहीं और शरीरों में रहने वाले सत् को लेकर भी शोक हो नहीं सकता क्योंकि वह कभी मिटता (मरता) ही नहीं[1] आदि-आदि कहकर भगवान् ने शोक-निवृत्ति की विद्या बतायी है। जो साधक केवल परमात्मा के ही सम्मुख है, केवल परमात्मा को ही चाहता है, उसमें परमात्मा की कृपा से उनकी संपत्ति (दैवी संपत्ति) अर्थात् सद्गुण-सदाचार स्वाभाविक ही आ जाते हैं। परंतु अपने में दैवी-संपत्ति की कमी देखकर साधक को शोक-चिंतन होते हैं। इसलिए भगवान् कहते हैं कि साधक को अपने में दैवी गुणों की कमी देखकर शोक-चिंता नहीं करने चाहिए।[2] तात्पर्य है कि साधक भगवान् का आश्रय लेकर दुर्गुण-दुराचारों का त्याग करे और भगवान् को पुकारे, पर शोक चिंता कभी न करे। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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