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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
87. गीता में आये समानार्थक पदों का तात्यपर्य
पदों (शब्दों) का अर्थ प्रसंग के अनुसार किया जाता है। जहाँ एक ही अर्थ के दो पद आते हैं, वहाँ दोनों पदों का अलग-अलग अर्थ होता है और जहाँ एक पद आता है, वहाँ उसी के अंतर्गत दोनों अर्थ आ जाते हैं। गीता में कई जगह समानार्थक पद (एक ही अर्थ को दो पद) आये हैं, जिनका अलग-अलग अर्थ और तात्पर्य इस प्रकार है- 1. ‘नानाशस्त्रप्रहरणः’ अर्थात् ‘शस्त्र’ और ‘प्रहरण’[1]- जिसको हाथ में रखकर प्रहार किया जाता है, वह ‘शस्त्र’ है; जैसे- तलवार, भाला, छुरी, कटार, बघनखा आदि। जिसको हाथ से फेंककर प्रहार किया जाता है, वह ‘प्रहरण’ (अस्त्र); जैसे-बाण, चक्र, गोली आदि। शास्त्र भी कभी-कभी प्रहरण बन जाता है; जैसे- तलवार, भाला आदि को फेंककर भी प्रहार किया जा सकता है। तात्पर्य है कि शस्त्र और प्रहरण- दोनों शब्दों का प्रयोग करके दुर्योधन अपनी सेना की महत्ता बता रहा है। 2. ‘नित्यस्य’ और ‘अनाशिनः’[2]- जो निरंतर निर्विकार रहे, उसको ‘नित्य’ कहते हैं; और जिसका कभी नाश न हो, जो कभी मारा न जाय, उसको ‘अनाशी’ कहते हैं। तात्पर्य है कि इस शरीरी में किसी भी तरह से कोई विकार पैदा नहीं किया जा सकता तथा इसका किसी भी तरह से अभाव नहीं हो सकता। 3. ‘नित्यः’ और ‘शाश्वतः’[3]- जो निरंतर रहता है, जिसमें कभी अंतर नहीं पड़ता, जो कभी छिपता नहीं, वह ‘नित्य’ है; और जो प्रकट होने तथा छिपने पर भी ज्यों का त्यों रहता है, वह ‘शाश्वत’ है। तात्पर्य है कि इस शरीर में जन्मना, बढ़ना आदि कोई भी विकार नहीं है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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