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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
54. गीता में त्याग का स्वरूप
त्याग के विषय में प्रायः लोगों की ऐसी धारणा बनी हुई है कि जो घर-परिवार, स्त्री-पुत्र, माता-पिता आदि को छोड़कर साधु-संन्यासी हो जाते हैं, वे त्यागी हैं। परंतु वास्तव में यह त्याग नही हैं क्योंकि जब तक अंतःकरण में सांसारिक वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदि में राग है, प्रियता है, उनका महत्त्व है, तब तक बाहर से घर-परिवार, गृहस्थ को छोड़ने पर भी त्याग नहीं होता। अगर बाहर से घर-परिवार छोड़ने मात्र से त्याग हो जाता है तो फिर सब मरने वालों का कल्याण हो जाना चाहिए क्योंकि वे अपने घर परिवार को और खास अपने कहलाने वाले शरीर को भी छोड़ देते हैं! परंतु उनका कल्याण नहीं होता क्योंकि उन्होंने सांसारिक राग, आसक्ति, ममता आदि का त्याग नहीं किया, प्रत्युत इनके रहते हुए उनको मरना पड़ा। जो चीज अपनी नहीं होती, उसका भी त्याग नहीं होता और जो अपना स्वरूप है, उसका भी त्याग नहीं होता जैसे- अग्नि अपनी दाहिका और प्रकाशिका शक्ति का त्याग नहीं कर सकती क्योंकि दाहिका और प्रकाशिका शक्ति अग्नि का स्वरूप है। फिर त्याग किसका होता है? जो चीज अपनी नहीं है, उसको अपना मान लिया- इस झूठी मान्यता का, बोईमानी का ही त्याग होता है। जिसके साथ अपना संबंध कभी था नहीं, अभी है नहीं, आगे होगा नहीं और कभी हो सकता भी नहीं था बिना त्याग किए ही जिसका प्रतिक्षण हमारे से संबंध विच्छेद हो रहा है, उसके साथ माने हुए संबंध का त्याग करना ही वास्तविक त्याग है। तात्पर्य है कि वस्तु आदि का अभाव नहीं करना है, प्रत्युत उन वस्तुओं से जो संबंध मान रखा है, उनमें जो आसक्ति, ममता कर रखी है, उसका त्याग करना है। यह त्याग ही वास्तविक त्याग है, जिससे तत्काल शांति मिलती है, - ‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’[1] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (12।12)
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