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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
94. गीता में आये 'कृत्वा', 'ज्ञात्वा' और 'मत्वा' पदों का तात्पर्य
गीता में 'कृत्वा' करना, 'ज्ञात्वा' (जानना) और 'मत्वा' (मानना)- ये तीनों पद मुख्यता से आये हैं। कर्मयोग में निष्कामभाव से कर्म करना मुख्य है। अत: गीता में जहाँ-जहाँ कर्मयोग का प्रकरण आया है, वहाँ मुख्यरूप से कर्तव्य-कर्म करने की बात आयी है, जैसे- 'कर्म करते हुए भी नहीं बँधता'[2] आदि। इसी तरह 'कुरु', 'करोति', 'कुर्वन्' आदि पर भी 'करने के' अर्थ में आये हैं। यद्यापि कर्मयोग में 'करना' मुख्य है, तथापि उसमें 'ज्ञात्वा' अर्थात जानने की बात भी आती है। कारण कि केवल कर्म करने से शरीर-संसार से सम्बंध-विच्छेद नहीं होता। सम्बंध-विच्छेद तभी होता है, जब कर्म करने के साथ-साथ निष्कामभाव और कर्मों के तत्त्व को जानना भी हो। अत: गीता में कर्मों के तत्त्व से जानने की बात आती है, जैसे- 'इस तरह कर्मों के तत्त्व को जानकर मुमुक्षुओं ने कर्म किये है'[3]; जिसको जानकर तू अशुभ संसार से मुक्त हो जायगा[4]; 'इस तरह सम्पूर्ण यज्ञों को कर्मजन्य जानकर तू अशुभ संसार से मुक्त हो जायेगा'।[5] ज्ञान योग में अपने स्वरूप को जानना मुख्य है। अत: गीता में जहाँ-जहाँ ज्ञानयोग का प्रकरण आया है, वहाँ मुख्यरूप से जानने की बात आयी है; जैसे -'जिसकी जानकर फिर मोह नहीं होता[6] आदि। ज्ञानयोग के प्रकरण में जहाँ 'मत्वा' अर्थात मानने की बात आती है, वह भी वास्तव में जानने के अर्थ में ही आयी है, जैसे-'गुण और कर्म के विभाग को जानने वाला मनुष्य गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा मानकर आसक्त नहीं होता'[7] इसी तरह 'वेत्ति', 'पश्यति' आदि पद भी 'जानने' के अर्थ में आये हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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