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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
39. गीता में स्वाभाविक और नये परिवर्तम का वर्णन
प्रकृति और प्रकृति के कार्य संसार में बढ़ना-घटना आदि जो कुछ परिवर्तन हो रहा है, वह 'स्वाभाविक परिवर्तन' है और मनुष्य जो नये कर्म करता है, वह 'नया परिवर्तन' है। स्वाभाविक परिवर्तन निरंतर होता ही रहता है। यह परिवर्तन मनुष्य, देवता, भूत-प्रेत, गन्धर्व, यक्ष आदि के शरीरों में तथा सूर्य, चंद्र, तारे, नक्षत्र, वृक्ष, लता, जंतु आदि में और पृथ्वी, समुद्र, पहाड़ आदि में भी होता रहता है। इसी स्वाभाविक परिवर्तन को कहीं प्रकृति में होने वाला कहा है[1] और कहीं गुणों में होने वाला कहा है [2] तात्पर्य है कि त्रिलोको के स्थावर-जंग में प्रणियों के शरीरों में तथा जड़ पदार्थों में जो कुछ परिवर्तन हो रह है, वह स्वाभाविक परिवर्तन है। मनुष्य का शरीर जन्मता है, बचपन से युवा होता है, युवा से वृद्ध होता है और फिर मर जाता है[3] यह स्वाभाविक परिवर्तन होते हुए भी मनुष्य में नया परिवर्तन भी होता है। जैसे, मनुष्य सात्त्विक संग, स्वाध्याय, जप ध्यान आदि करता है तो उसकी गति राजस की तरफ और तामस संग स्वाध्याय आदि करता है तो उसकी गति तामस की तरफ हो जाती है। मरने के बाद सात्त्विक के मनुष्य ऊर्ध्वगति में, रजस मनुष्य मध्यगति में और तामस पुरुष अधोगति में जाते हैं।[4] नया परिवर्तन पशु-पक्षी आदि में भी देखने में आता है; जैसे- शिक्षा देने पर बंदर भी सैनिक का काम करने लगाता है, साइकिल चलाने लगता है आदि-आदि; परंन्तु जिसका कल्याण हो जाय, ऐसा पारमार्थिक परिवर्तन उसमे नहीं होता। कारण कि वह भोगबोनि है और उसमें जो कुछ होता है, वह सब भोग के लिये ही होता है। जैसे सिंह किसी पशु, को मारकर खा जाता है तो उसको पाप नहीं लगता; क्योंकि उसमे सब भोग-हो-भोग है। अत: पशु, पक्षी आदि योनियों में नया कर्म बनता है। मनुष्ययोनि कर्मयोनि है; अत: मनुष्य नया कर्म (नया परिवर्तन) कर सकता है। मनुष्य के जो जन्मरम्भक कर्म हैं, वे पुराने कर्म है। उन कर्मो से जो परिवर्तन होता है उससे भी विलक्षण परिवर्तन नये कर्मो से होता है। ऐसा देखने में आता है कि उत्तम जाति में जन्म लेने पर भी अच्छा संग, शिक्षा आदि न मिलने से मनुष्य दुराचारी हो जाता है। अत: जन्मारम्भक (पुराने) कर्म अच्छे होने पर भी नये कर्म अच्छे न होने से मनुष्य का पतन हो जाता है। इसके विपरीत नीच जाति में जन्म लेने पर भी अच्छा संग, शिक्षा आदि मिलने से मनुष्य सदाचारी हो जाता है, संत-महात्मा बन जाता है, दूसरों के लिये आदर्श हो जाता है। अत: जन्मारम्भक कर्म अच्छे न होने पर भी नये कर्म अच्छे होने से मनुष्य में बहुत विलक्षणता आ जाती है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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