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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
14. गीता में सनातनधर्म
संसार में मुख्य रूप से चार धर्म प्रचलित हैं- सनातन धर्म, मुस्लिम धर्म, बौद्ध धर्म और ईसाई धर्म। इन चारों धर्मों में से एक – एक धर्म को मानने वाले करोड़ों आदमी हैं। इन चारों धर्मों में भी अवान्तर कई धर्म हैं। सनातन धर्म को छोड़कर शेष तीनों धर्मों के मूल में धर्म चालने वाला कोई व्यक्ति मिलेगा; जैसे- मुस्लिम धर्म के मूल में मोहम्मद साहब, बौद्धधर्म के मूल में गौतम बुद्ध और ईसाई धर्म के मूल में ईसा मसीह मिलेंगे। परंतु सनातन धर्म के मूल में कोई व्यक्ति नहीं मिलेगा। कारण यह है कि सनातन धर्म किसी व्यक्ति के द्वारा चलाया हुआ धर्म नहीं है। यह तो अनादिकाल से चलता आ रहा है। जैसे भगवान् शाश्वत (सनातन) हैं, ऐसे ही सनातन धर्म भी शाश्वत है। भगवान् ने भी सनातन धर्म को अपना स्वरूप बताया है- ‘ब्राह्मणो हि प्रतिष्ठाहं..... शाश्वतस्य च धर्मस्य’[1] जिस-जिस युग में जब-जब इस सनातन धर्म का ह्रास होता है, हानि होती है, तब-तब भगवान् अवतार लेकर इसकी संस्थापना करते हैं।[2] तात्पर्य यह है कि भगवान् भी इसकी संस्थापना, रक्षा करने के लिए ही अवतार लेते हैं; इसको बनाने के लिए, उत्पन्न करने के लिए नहीं। अर्जुन ने भी भगवान् को सनातन धर्म का रक्षक बताया है- ‘त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता’[3] एक उपज होती है और एक खोज होती है। जो वस्तु पहलू मौजूद न हो, उसकी उपज होती है; और जो वस्तु पहले से ही मौजूद हो, उसकी खोज होती है। मुस्लिम, बौद्ध और ईसाई- ये तीनों ही धर्म व्यक्ति के मस्तिष्क की उपज हैं; परंतु सनातन धर्म किसी व्यक्ति के मस्तिष्क की उपज नहीं है, प्रत्युत यह विभिन्न ऋषियों के द्वारा किया गया अन्वेषण है, खोज है- ‘ऋषयो मंत्रद्रष्टारः’। अतः सनातन धर्म के मूल में किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं लिया जा सकता। यह अनादि, अनन्त एवं शाश्वत है। अन्य सभी धर्म तथा मत-मतान्तर भी इसी सनातन धर्म से उत्पन्न हुए हैं। इसलिए उन धर्मों में मनुष्यों के कल्याण के लिए जो साधन बताये गये हैं, उनको भी सनातन धर्म की ही देन मानना चाहिए। अतः उन धर्मों में बताये गये अनुष्ठानों का भी निष्काम भाव से कर्तव्य समझकर पालन किया जाए तो कल्याण होने में संदेह नहीं करना चाहिए[4] प्राणिमात्र के कल्याण के लिए जितना गहरा विचार सनातन धर्म में किया गया है, उतना दूसरे धर्मों में नहीं मिलता। सनातन धर्म के सभी सिद्धांत पूर्णतया वैज्ञानिक और कल्याण करने वाले हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (14।27)
- ↑ (4।7-8)
- ↑ (11।18)
- ↑ प्रत्येक धर्म में कुधर्म, और परधर्म- ये तीनों होते हैं। दूसरे के अनिष्ट का भाव, कूटनीति आदि ‘धर्म में कुधर्म’ है; यज्ञ में पशुबलि देना आदि ‘धर्म में अधर्म’ है; और जो अपने लिए निषिद्ध है, ऐसा दूसरे वर्ण आदि का धर्म ‘धर्म में परधर्म’ है। कुधर्म, अधर्म और परधर्म- इन तीनों से कल्याण नहीं होता। कल्याण उस धर्म से होता है, जिसमें अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग एवं दूसरे का वर्तमान और भविष्य में हित होता हो।
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