श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी144.श्री प्रकाशानन्द जी का आत्मसमर्पण
भ्रातस्तिष्ठ तले तले विटपिनां ग्रामेषु भिक्षामट भक्त चित्तचोर श्री गौरांग ने अद्वैत वेदान्त के प्रकाण्ड पण्डित श्री प्रकाशानन्द जी का मन हठात अपनी ओर आकर्षित कर लिया। वे अनजान भोले मनुष्य की भाँति प्रभु के मन से चरण किंकर बन गये, क्योंकि वे प्रभु के अपने निजजन थे। प्रभु के चले जाने पर प्रकाशानन्द जी अपने मठ में पहुँचे। वहाँ उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगने लगा। वेदान्त के ग्रन्थ उन्हें काटने को दौड़ने लगे। उनका चित्त अब श्री चैतन्य चरणों के चिन्तन में ही सुख का अनुभव करने लगा। महाप्रभु की मनोहर मूर्ति उनके हृदय में गड़-सी गयी। वे उसकी अनुपम रुपमाधुरी का मन-ही-मन रसास्वादन करने लगा। उन्हें अपने पूर्वकृत अपराधों के लिये घोर सन्ताप होने लगा- 'हाय, जो इतने सरल हैं, ऐसे विनम्र हैं, इतने सुन्दर हैं- उनके रोम-रोम से प्रेम का प्रवाह फूट-फूटकर निकलता रहता है। सरलता की तो साक्षात साकार सजीव मूर्ति ही हैं।' श्रीमत्प्रकाशानन्द जी ऐसा सोच ही रहे थे कि उसी समय महाराष्ट्रीय सज्जन वहाँ आ उपस्थित हुए। वे स्वामी प्रकाशानन्द जी को प्रणाम करके बैठ गये और थोड़ी देर पश्चात धीरे-धीरे पूछने लगे- 'भगवन! आपने उन बंगाली स्वामी जी के दर्शन किये। अब तो आपने प्रत्यक्ष ही देख लिया कि उनका शरीर ही प्रेममय है।' इतना सुनते ही प्रकाशानन्द जी ने उनके पैर पकड़ लिये और रोते-रोते कहने लगे- 'भैया! तुमने मेरा उद्धार करा दिया। अभिमान के वशीभूत होकर अपने को पण्डित समझने वाले मुझ पतित ने उन महापुरुष की न जाने कितनी बार निन्दा की। वे तो साक्षात ईश्वर हैं। शरीर धारी नारायण हैं। उन्होंने जो बातें कहीं सो सभी सत्य हैं।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हे भैया! बताऊँ कैसा जीवन तुम्हें बिताना चाहिये? अच्छा तो सुनो 'देखो' व्रज की पुण्य भूमि में किसी वृक्ष के नीचे पड़ रहो और भूख लगे तो आस पास के गांवों में से जाकर टुकड़े मांग लाओ। किसी ने सम्मान से भोजन करा दिया या और किसी भाँति से प्रतिष्ठा की तो उसे भयंकर विष के समान समझो। यदि गांव के मूर्ख आकर तुम्हें देखकर हंसें और आपमान करें तो समझना ये हमें अमृत पिला रहे हैं। पीने के लिये श्याम रंग वाला सुन्दर स्वच्छ यमुना जी का जल और ओढ़ने के लिये रास्ते में पड़े हुए चिथड़ों की गुदड़ी, इससे अधिक संग्रह ठीक नहीं। बस, श्री राधारमण बांके विहारी मुरलीधर का ध्यान करते हुए वृन्दावन को छोड़कर अन्यत्र कहीं भी मत जाओ।'