श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी113. महाराज प्रतापरुद्र को प्रभु दर्शन के लिये आतुरता
हेलोद्धूलितखेदया विशदया प्रोन्मीलदामोदया। हम पहले ही बात चुके हैं कि सार्वभौम भट्टाचार्य द्वारा महाप्रभु का परिचय पाकर कटकाधिपति महाराज प्रतापरुद्र जी के हृदय में प्रभु के प्रति प्रगाढ़ भक्ति उत्पन्न हो गयी थी। महाराज वैसे धर्मात्मा थे, विद्याव्यासंगी थे और साधु ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धा-भक्ति भी रखते थे; किन्तु कैसे भी सही, थे तो राजा ही। संसारी विषय भोगों में फंसे रहना तो उनके लिये एक साधारण सी बात थी। किन्तु ज्यों ज्यों उनका महाप्रभु के चरणों में भक्ति बढ़ने लगी, त्यों-ही-त्यों उनकी संसारी विषय-भोगों की लालसा कम होती गयी। हृदय की कोठरी में बहुत ही छोटी हैं; जहाँ विषयों की भक्ति हैं, वहाँ साधु महात्माओं के प्रति भक्ति रह ही नहीं सकती और जिनके हृदय में साधु-महात्मा तथा भगवद्भक्तों के लिये श्रद्धा है, वहाँ काम रह ही नहीं सकता। तभी तो तुलसीदास जी ने कहा है-
साधु-चरणों में ज्यों-ज्यों प्रीति बढ़ती जायगी, त्यों ही त्यों अभिमान, बड़प्पन और अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने के भाव को होते जायँगे। महाराज के पास बहुत से साधु, पण्डित तथा विद्वान स्वयं ही दर्शन देने और उन्हें आशीवार्द प्रदान करने के लिये उनके दरबार में आते थे, इसीलिये उनकी इच्छा थी कि महाप्रभु भी आकर उन्हें दर्शन दे जायँ; किन्तु महाप्रभु को न तो स्वादिष्ट पदार्थ खाने की इच्दा थी, न वे अपना सम्मान ही चाहते थे और न उन्हें रुपये पैसे की अभिलाषा थी। फिर वे राजदरबार में क्यों जाते। प्राय: लोग इन्हीं तीन कामों से राजा के यहाँ जाते हैं। महाप्रभु इन तीन विषयों को त्यागकर वीतरागी संन्यासी बन चुके थे। संन्यासी के लिये शास्त्रों में राजदर्शनतक निषेध बताया गया है। हाँ, कोई राजा भक्तिभाव से संन्यासियों के दर्शन कर ले यह दूसरी बात है, उस समय उसकी स्थिति राजा की न होकर श्रद्धालु भक्त की ही होगी। स्वयं त्यागी-संयासी राजा से उसकी राजापने की स्थिति में मिलने न जायगा। महाराज को इस बात का क्या पता था। अभी तक उन्हें ऐसा सच्चा संन्यासी कभी मिला ही नहीं था। इसीलिये प्रभु के पुरी में पधारने का समाचार पाकर महाराज ने सार्वभौम भट्टाचार्य के समीप पत्र भिजवाया और उसमें उन्होंने महाप्रभु के दर्शन की इच्छा प्रकट की। महाराज के आदेशानुसार भट्टाचार्य महाप्रभु के समीप गये और कुछ डरते हुए से कहने लगे- ‘प्रभो ! मैं एक निवदेन करना चाहता हूँ, आज्ञा हो तो कहूँ? आप अभय-दान देंगे तभी कह सकूँगा।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हे दयानिधे श्रीचैतन्य ! जो लीला से दु:खों को नष्ट कर देने वाली, निर्मल तथा परमानन्द को प्रकाशित करने वाली हैं, जिससे शास्त्रीय विवाद शान्त हो जाते हैं, जो रस-प्रदान करके चित्त को उन्मादी बना डालती हैं, जिसका निरन्तर भक्ति से ही विनोद होता है, जो शान्तिदायिनी है उस माधुर्यरस की चरम सीमा के द्वारा आपको दया का अमन्द आविर्भाव हो। चै. चन्द्रो. ना. अं. 8/10