श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी113. महाराज प्रतापरुद्र को प्रभु दर्शन के लिये आतुरता
प्रभु ने हंसते हुए कहा- ‘ऐसी कौन सी बात हैं, कहिये, आप कोई मेरे अहित की बात थोड़े ही कह सकते हैं? जिसमें मेरा लाभ होगा उसे ही आप कहेंगे।’ भट्टाचार्य ने कुछ प्रेमपूर्वक आग्रह के साथ कहा- ‘आपको मेरी प्रार्थना स्वीकार करना पड़ेगी।’ प्रभु ने हंसते हुए कहा- ‘वाह, यह खूब रही, अभी से वचनबद्ध कराये लेते हैं, माननेयोग्य होगी तो मानूँगा, नहीं तो ‘ना’ कर दूँगा और फिर आप ‘ना’ करने योग्य बात कहेंगे ही क्यों?’ प्रभु के इस प्रकार के चातुर्ययुक्त उत्तर को सुनकर कुछ सहमत हुए भट्टाचार्य महाशय कहने लगे- प्रभो ! महाराज प्रतापरुद्र आपके दर्शन के लिये बड़े ही उत्कण्ठित हैं, उन्हें दर्शन देकर अवश्य कृतार्थ कीजिये।’ प्रभु ने कानों पर हाथ रखते हुए कहा- ‘श्रीविष्णु, श्रीविष्णु, आप शास्त्रज्ञ पण्डित होकर भी ऐसी धर्मविहीन बात कैसे कह रहे हैं? राजा के दर्शन करना तो संन्यासी के लिये पाप बताया है। जब आप अपने होकर भी मुझे इस प्रकार धर्मच्युत होने के लिये सम्मति देंगे, तब मैं यहाँ अपने धर्म की रक्षा कैसे कर सकूँगा? तब तो मुझे पुरी का परित्याग ही करना पड़ेगा। भला, संसारी विषयों में फँसे हुए राजा के दर्शन? कैसी दु:ख की बात है? सुनिये- निष्किञ्चनस्य भगवद्भजनोन्मुखस्य अर्थात ‘जो भगवद्भजन के लिये उत्सुक और अकिंचन होकर इस अपार भवसागर को सम्पूर्ण रूप पार करना चाहते हैं ऐसे भगवान की ओर बढ़ने वाले भक्तों के लिये विषय भोगों में फँसे हुए लोगों का और स्त्रियों का दर्शन, हाय! हाय! विषभक्षण से भी अधिक असाधु है।’ विषभक्षण करने पर तो मनुष्य का इहलोक ही नष्ट होता है, किन्तु इन दोनों के संसर्ग से तो लोक परलोक दोनों ही नष्ट हो जाते हैं। इसलिये भट्टाचार्य महाशय! आप मुझे क्षमा करें। अत्यन्त ही विनीभाव से भट्टाचार्य सार्वभौम ने कहा- ‘प्रभो ! आपका यह वचन शास्त्रानुकूल ही है। किन्तु महाराज परमभक्त हैं। जगन्नाथ जी के सेवक हैं, आपके चरणों में उनका दृढ़ अनुराग है। इन सभी कारणों से वे प्रभु के कृपापात्र बनने के योग्य हैं। आप उनसे राजापने के भाव से न मिलिये। मान लीजिये, वे विषयी ही हैं तो आपकी तो वे कुछ हानि नहीं कर सकते। उलटे उनका ही उद्धार हो जायगा। आपकी कृपा से संसारी लोगों का संसार-बन्धन छूट जाता है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चै. चन्द्रो. ना. अं. 8/83